मुंबई: महाराष्ट्र के सतारा में जिला एवं सत्र न्यायाधीश धनंजय निकम को रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। भ्रष्टाचार निरोधक विभाग (एसीबी) ने न्यायाधीश समेत चार लोगों को उस समय हिरासत में लिया, जब वे शिकायतकर्ता से 5 लाख रुपए की रिश्वत लेने की कोशिश कर रहे थे। न्यायाधीश पर आरोप है कि उन्होंने शिकायतकर्ता के पिता को जमानत देने के बदले रिश्वत मांगी थी।
शिकायतकर्ता की शिकायत पर भ्रष्टाचार निरोधक विभाग ने होटल में जाल बिछाया और धनंजय निकम को रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया। मामले में किशोर खरात और आनंद खरात नाम के दो बिचौलियों को भी गिरफ्तार किया गया। एसीबी ने 11 दिसंबर 2024 को इस मामले में एफआईआर दर्ज की और अपनी जांच में रिश्वत मांगने के आरोप को सही पाया।
यह घटना उस विश्वास पर गहरी चोट करती है, जो जनता न्यायपालिका पर करती है। भारत में न्यायाधीशों को हमेशा आलोचना से परे और निष्पक्ष माना जाता है। उनके फैसले अंतिम माने जाते हैं और उनकी सत्यनिष्ठा पर सवाल उठाना आमतौर पर वर्जित समझा जाता है। लेकिन जब न्यायपालिका के सदस्य, जो कानून के संरक्षक माने जाते हैं, भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाते हैं, तो यह गंभीर चिंता का विषय बन जाता है।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। हाल ही में मुंबई में भी भ्रष्टाचार निरोधक विभाग ने बीएमसी के एक सहायक अभियंता को तीन लाख रुपए की रिश्वत लेते हुए पकड़ा था। इसी तरह राजस्थान के झुंझुनू में एक मजिस्ट्रेट को 2 लाख रुपए की रिश्वत और एक महंगा डिनर सेट लेते हुए गिरफ्तार किया गया। ये घटनाएं न्यायपालिका और अन्य संस्थानों की निष्पक्षता और जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं।
यहां यह सवाल उठता है कि क्या न्यायपालिका, जो खुद जवाबदेही की कसौटी पर दूसरों को परखती है, उसे खुद भी उसी कसौटी पर कसा जाना चाहिए? जब एक न्यायाधीश चंद पैसों की लालच में अन्याय का साथ देता है, तो यह न केवल उस व्यक्ति के प्रति अन्याय है जो न्याय की उम्मीद कर रहा था, बल्कि संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों के प्रति भी विश्वासघात है।
क्या यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि न्यायाधीशों के फैसलों की भी स्वतंत्र और पारदर्शी समीक्षा हो? यह भी हो सकता है कि किसी न्यायाधीश ने दबाव में आकर संविधान और न्याय के मूल सिद्धांतों के खिलाफ फैसला दिया हो। क्या यह समय नहीं आ गया है कि न्यायपालिका के सदस्यों की जवाबदेही तय करने के लिए ठोस तंत्र विकसित किया जाए?
न्यायपालिका का सम्मान और स्वतंत्रता बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन जब ऐसे घटनाएं बार-बार सामने आती हैं, तो न्यायिक प्रणाली में सुधार और पारदर्शिता की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है। देश की जनता उन पर भरोसा करती है, लेकिन ऐसे मामलों से यह भरोसा टूटने लगता है। यह समाज और लोकतंत्र के लिए एक चिंताजनक स्थिति है, जिसे तुरंत सुलझाना चाहिए।