नई दिल्ली: भारत ने देश को अस्थिर करने के उद्देश्य से विदेशी हस्तक्षेपों को रोककर बांग्लादेश जैसी स्थिति को सफलतापूर्वक टाल दिया है। वरना भारत में भी वैसे ही हालत पैदा करने की पूरी तैयारी थी, वो भी चुनावों के पहले से। लेकिन, ऐसा लगता है, जैसे सरकार को अपने पहले या दूसरे कार्यकाल में ही इसकी भनक लग गई थी, जिसके चलते ऐसी स्थिति पैदा होने से पहले ही रोक ली गई। हालाँकि, सरकार की इस तरह की कार्रवाइयों को तानासाही कहा गया, लेकिन भारत सरकार के सक्रिय उपायों ने यह सुनिश्चित किया है कि बाहरी ताकतों द्वारा अशांति भड़काने के प्रयासों के बावजूद देश लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए एक सुरक्षित आश्रय स्थल बना रहे।
मौजूदा समय में भी पड़ोस में जो हिंसा भड़की है, उसकी आंच भी भारत में न पहुंचे, इसके लिए भी सरकार ने कुछ त्वरित कदम उठाए हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में भारत-बांग्लादेश सीमा पर स्थिति की निगरानी के लिए सीमा सुरक्षा बल (BSF) के ADG और भारतीय सेना की पूर्वी कमान के नेतृत्व में एक समिति गठित की है। यह समिति बांग्लादेश में अपने समकक्षों के साथ मिलकर काम करेगी ताकि अशांत देश में रहने वाले भारतीय नागरिकों, हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
वहीं, विशेषज्ञों ने बांग्लादेश की स्थिति देखते हुए इस संबंध में राय दी है कि भारत ने इन चुनौतियों से कैसे पार पाया, क्योंकि कोशिशें तो यहाँ भी वैसी ही जारी थीं। इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज (IPCS) के वरिष्ठ फेलो अभिजीत अय्यर मित्रा संभावित नुकसान को टालने के लिए भारत की मजबूत विदेश नीति और विदेशी NGO फंडिंग के कड़े नियमन को श्रेय देते हैं। सरकार ने कुछ समय पहले ही विदेशी फंडिंग पर चलने वाले कई NGO पर नकेल कसी थी और उनसे रिपोर्ट सार्वजनिक करवाई थी, जिसे कई बार तानाशाही कहा गया था , लेकिन इसके पीछे मंशा ये थी कि, कहीं विदेशी पैसों से देश विरोधी काम ना हो रहा हो, जो होता भी था। भारत के एक मीडिया संस्थान Newsclick पर चीन से पैसे लेकर उसका एजेंडा चलाने का आरोप लगा भी है, जिसका केस सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है। अभिजीत अय्यर आगे कुछ विदेशी फर्मों के बारे में बात करते हैं, जिन्होंने भारत में जबरदस्त खलबली मचाई थी। वे कहते हैं कि, ओमिडयार और हिंडनबर्ग जैसे समूह अपने निहित स्वार्थों के कारण जानबूझकर भारत की आलोचना करते रहे हैं, लेकिन सरकार के सख्त रुख ने उन्हें महत्वपूर्ण नुकसान पहुंचाने से रोका है।
बता दें कि, इसी हिंडनबर्ग ने महज एक रिपोर्ट से भारतीय राजनीति में खलबली मचा दी थी। वैसे तो, हिंडनबर्ग ऐसी कोई रिपोर्ट जारी करने वाली विश्वसनीय अंतर्राष्ट्रीय संस्था नहीं है, लेकिन भारत में विपक्ष और मीडिया द्वारा उसे ऐसे पेश किया गया, मानो उसकी बात पत्थर की लकीर हो। इसी का फायदा उठाकर शार्ट सेलर (शेयर के भाव गिराकर मुनाफा कमाना) कंपनी हिंडनबर्ग ने अपना प्रॉफिट निकाल लिया और भारत के हज़ारों निवेशकों के पैसे डूब गए या यूँ कहें कि हिंडनबर्ग कि जेब में चले गए। हालाँकि, भारत के सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा चला और हिंडनबर्ग के आरोप फुस्स साबित हुए, लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था। अब इसी हिंडनबर्ग ने एक और रिपोर्ट जारी कि है, जिसमे उसने SEBI चीफ माधवी बुच पर आरोप लगाए हैं और विपक्ष ने फिर इस रिपोर्ट को हाथों हाथ लिया है।
यानी ये तो स्पष्ट है कि, विदेशी ताकतों यानी जॉर्ज सोरोस गैंग टाइप लोगों का भारत में दखल जारी है और भारत के ही कैच राजनेता इसे समझ नहीं पा रहे या समझना नहीं चाह रहे, क्योंकि इसमें उन्हें सरकार विरोधी मटेरियल मिल रहा है। जॉर्ज सोरोस खुलकर राष्ट्रवाद को हटाने के लिए करोड़ों रूपए देने की पेशकश कर चुका है, साथ ही ये भी एक सर्वविदित तथ्य है कि, चीन-पाकिस्तान, आतंकवादी और भारत के अन्य दुश्मन, भारत में सत्ता पलटना चाह रहे थे, इसके लिए साजिशें रच रहे थे। अब भारत में सत्ता परिवर्तन से देश के दुश्मनों को क्या लाभ है, ये जनता खुद अपने विवेक से समझ सकती है। पाकिस्तान के पूर्व मंत्री फवाद चौधरी तो खुलकर, INDIA गठबंधन के समर्थन में आ गए थे और राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की वकालत कर रहे थे। क्या अपने भारत के किसी राजनेता का बयान देखा है कि, इमरान खान को हटना चाहिए, या नवाज़ शरीफ अच्छे प्रधानमंत्री थे। क्योंकि, पाकिस्तान का प्रधानमंत्री कोई भी रहे, वो रहेगा भारत का दुश्मन ही, इसलिए भारतवासी वहां के सत्ता परिवर्तन में इतनी दिलचस्पी नहीं लेते, लेकिन वो लोग लेते हैं, और साजिशें भी करते हैं, समझा जा सकता है क्यों ? बहुत वाकये हैं, ये समझने के, बहरहाल, अभी बात कर लें कि, बांग्लादेश में अराजकता की स्थिति क्या है, और भारत ने समय रहते अपने आप को कैसे संभाला।
विदेश नीति और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ प्रमित पाल चौधरी बताते हैं कि बांग्लादेश में हिंदुओं को 1971 से ही राजनीतिक और धार्मिक दोनों तरह से निशाना बनाया जाता रहा है। वह बांग्लादेश में हिंदुओं को व्यवस्थित तरीके से निशाना बनाए जाने और 1971 के नरसंहार के दौरान पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्तेमाल की गई रणनीति के बीच समानताएं बताते हैं, जिसमें बंगाली बौद्धिक वर्ग को जानबूझकर खत्म कर दिया गया था। अब इसके पीछे क्या वजह होगी, इसकी वजह साफ़ है, जब बुद्धिजीवी नहीं रहेंगे, तो कौन राज करेगा ? इन्ही सब चीज़ों के कारण आज बांग्लादेश में पैदा हुई अशांति ने क्षेत्र में अस्थिरता को और बढ़ा दिया है। इन चुनौतियों से आसानी से निपटने की भारत की क्षमता हाल के विवादों, जैसे कि कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में स्पष्ट हुई है। कृषि कानून भी इसी तरह का एक शिगूफा था, जब ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था, तो अदालत ने इन कानूनों की जांच करने के लिए एक समिति बनाई थी। उस समिति ने देशभर के किसान संगठनों से बात करके और उनकी राय जानकर एक रिपोर्ट तैयार की, जिसका निष्कर्ष था कि देश के 86 फीसद संगठन इन कानूनों के पक्ष में थे। उस रिपोर्ट के अनुसार, 3 करोड़ किसानों को कृषि कानून चाहिए थे और 50 लाख इसके खिलाफ थे। लेकिन, ग्रेटा थनबर्ग, मिया खलीफा और रिहाना जैसे कृषि प्रेमियों के ट्वीट और बयान दिखा-दिखाकर भारत के आम आदमी की सोच बदलने की भी भरपूर कोशिश की गई। सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई और सरकार को कानून वापस लेने पड़े। हालाँकि, विश्व स्तर पर कोशिशें अब भी जारी हैं, कभी अमेरिका की रिपोर्ट आती है कि भारत में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे हैं, तो कभी भारत पर रूस-इजराइल से संबंध ना रखने के लिए दबाव डाला जाता है, इसमें भारत के कुछ नेता भी साथ देते हैं, लेकिन सरकार दृढ़ है। वो हर बार वैश्विक धमकियों पर दो टूक कह चुकी है कि, जो हमारे देश और देशवासियों के हित में होगा, वो हम जरूर करेंगे। चाहे वो रूस से तेल खरीदना हो, या इजराइल से तकनीक। कई लोग इस बात से सहमत हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत ने एक वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी स्थिति मजबूत की है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने और राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है।
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