आइये, जिंदगी को नए ढंग से जीना शुरू करें

आइये, जिंदगी को नए ढंग से जीना शुरू करें
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हाल ही में देश में हुई सामाजिक उपेक्षा की दो घटनाओं ने पूरे देश को उद्वेलित कर दिया है.पहली है मुंबई में करोड़ों रुपये के फ़्लैट में आशा साहनी के कंकाल मिलने की घटना और दूसरी 12 हजार करोड़ रुपये की मिल्कियत वाले रेमंड ग्रुप के मालिक विजयपत सिंघानिया का पाई -पाई के लिए मोहताज होना. अमीर परिवारों से जुड़ी इन दो अलग -अलग घटनाओं ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है. दरअसल यह घटनाएं संकेत है कि करोड़ों की दौलत के बजाय सुकून के दो पल ज्यादा कीमती हैं. जो सिर्फ अपनों के बीच ही नहीं बल्कि समाज के माध्यम वर्ग के बीच भी महसूस किये जा सकते हैं. फिर यह 'अपना' खुद का परिजन भी हो सकता है या फिर पराया भी 'अपना' हो सकता है. यह व्यक्ति के व्यवहार और उसकी सोच पर निर्भर करता है.

अपेक्षा और उपेक्षा का अंतर्द्वंद-

 सच तो यह है कि अपेक्षा और उपेक्षा के बीच चलने वाले अंतर्द्वंद के कारण व्यक्ति अपनी वह वास्तविक जिंदगी जी ही नहीं पाता है. ऐसा ही आशा साहनी और विजयपत सिंघानिया के साथ हुआ. दोनों ने अपने बच्चों के सुखद भविष्य की खातिर उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने में लगे रहे और अपना बुढ़ापा सुरक्षित समझते रहे.लेकिन हुआ उल्टा. बच्चो ने अपनी जिंदगी तो संवार ली लेकिन इनका बुढ़ापा बिगाड़ दिया. जब अपने बच्चे ही बेगाने बन गए.उनके द्वारा की जा रही उपेक्षा को वे सहन नहीं कर पाए. एक गौर करने वाली बात यह है कि यह दोनों घटनाएँ अमीर वर्ग से जुड़ी हुई है. वैसे भी बड़े लोग घमंड में चूर रहकर अपने से हैसियत में कम होने वाले लोगों को अहमियत कहाँ देते हैं.भले ही अपने रिश्तेदार क्यों हो. यही इन दोनों के साथ हुआ. इन्हे सिर्फ अपने बच्चो पर भरोसा किया दूसरों पर नहीं .लेकिन जब यह भरोसा टूटा तो पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक गई.उन्हें अपनी ही औलाद से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं थी. इसीसे वे अंदर तक हिल गए.

सामाजिक संपर्क बढ़ाना जरुरी -

 जबकि ऐसे लोग चाहें तो अपनी कथित आडंबर और स्वयंभू वाली दीवार तोड़कर अपना ही एक अलग समानांतर सामाजिक संसार बसा सकते हैं.जिसमे हर वर्ग के लोग शामिल किये जा सकते हैं.इन अनजान लोगों से बने अनाम रिश्तों में जीकर भी जीवन की खुशियां हासिल की जा सकती है.आदमी गिर कर फिर सम्भल भी सकता है, क्योंकि सम्भलने के लिए सहारे की जरूरत होती है और यह सहारा अनजान लोगों से भी मिल सकता है.जिसमे स्वार्थ नहीं होता. इसके लिए अवतार और बागबान फिल्मों की मिसाल दी जा सकती है जिनमे नायक को पराए अपना बनकर मदद करते हैं जिससे वे फिर उभरकर सामने आते हैं. यही जीवन का सत्य है.सच तो यह है कि वर्तमान में हर व्यक्ति भीड़ में अकेला है. संयुक्त परिवारों के विखंडन के बाद अब व्यक्ति अपने परिवार में भी तन्हा होने लगा है.मोबाईल और अन्य आभासी संसाधनों में डूबकर वह सिर्फ अपना समय काट रहा है, जिंदगी नहीं. इसलिए सामाजिक सम्पर्कों को बढ़ाना समय की मांग बन गई है.

जिंदगी जीना सीखिए- 

 आज के इस स्वार्थी और एकाकी युग में इस पीड़ा को सिंघानिया ही नहीं अन्य मध्यम और निम्न वर्ग के लोग भी भुगत रहे है.ऐसी दशा में सब बातों को छोड़कर जिंदगी को जीना सीखना चाहिए. जब पशु समूह में रह सकते हैं तो हम क्यों नहीं. जबकि मानव तो विवेकवान है. छद्म जीवन को त्याग कर वास्तविक जीवन जीने की आदत डालनी ही पड़ेगी. क्योंकि यही हकीकत की दुनिया है जहाँ स्वार्थ, ईर्ष्या आदि के लिए कोई जगह नहीं है. यहां हंसी के ठहाके हैं जो जीवन को उन्मुक्त बनाते है.यदि आप समर्थ है तो जरूरतमंद को मदद करके भी ऐसे असीम सुख की अनुभूति कर सकते हैं जिसे ढेर सारी दौलत के बीच भी महसूस नहीं किया.

यह सुख कोई भी पा सकता है. जरूरत है तो केवल पहल करने की.आओ जिंदगी को नए ढंग से जीना शुरू करें.अपने परिवार और समाज के बीच खुश रहकर वास्तविक जीवन का आनंद उठाएं क्योंकि इस क्षण भंगुर जीवन का कोई भरोसा नहीं है. कहा भी गया है पूत कपूत तो क्यों धन संचय, फिर क्यों संपत्ति का संग्रह करें . सिकंदर ने मरने से पहले अपनी मैयत के दौरान अपने दोनों हाथ बाहर रखने की गुजारिश की थी , ताकि दुनिया को यह पता चल सके कि सारी दुनिया को जीतने वाला भी इस दुनिया से खाली हाथ जा रहा है.इसे नजीर समझें और नए तरीके से जीवन जिएं जो खुशियों से भरी हुई है.

'आशा ' की मौत, निराशा का अँधेरा

 

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