ईरान-पाकिस्तान ने 12 हज़ार अफगानियों को अपने देश से निकाला, फिर भारत में ही क्यों होता है अवैध घुसपैठियों का समर्थन ?

ईरान-पाकिस्तान ने 12 हज़ार अफगानियों को अपने देश से निकाला, फिर भारत में ही क्यों होता है अवैध घुसपैठियों का समर्थन ?
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इस्लामाबाद: हाल ही में, दो इस्लामी मुल्कों, ईरान और पाकिस्तान ने लगभग 12,000 अफ़गान प्रवासियों को निर्वासित किया है। अफ़गानिस्तान के शरणार्थी और प्रत्यावर्तन मंत्रालय ने बताया है कि ये अफगानी वापस अपने देश लौट आए हैं। मुस्लिम मुल्कों की इस आपसी कार्रवाई ने आलोचना को जन्म दे दिया है और भारत में कुछ धर्मनिरपेक्ष समूहों के बीच कथित दोहरे मापदंड को उजागर किया है।

अफगानियों के निर्वासन ने भारत में धर्मनिरपेक्ष समूहों की चुप्पी की ओर ध्यान आकर्षित किया है, जो पहले नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) पर बहस के दौरान पड़ोसी देशों में मुसलमानों के अधिकारों के बारे में मुखर थे। आलोचकों का तर्क है कि इस समूह के लोग, जिन्होंने पड़ोसी देशों के मुसलमानों को शामिल ना करने पर CAA का विरोध किया था, उन्होंने अफ़गानी मुस्लिमों को खदेड़ने के लिए ईरान और पाकिस्तान की निंदा क्यों नहीं की ? वहीं, भारत अगर NRC लागू कर अपने देश से घुसपैठियों को निकालना चाहे, तो कुछ लोग देश में आग लगाने से भी बाज़ नहीं आएँगे। इसमें वोट बैंक की राजनीति से ग्रसित कुछ राजनेताओं सहित विदेशी मीडिया भी उनका साथ देगा, तो क्या भारत को तमाम देशों के घुसपैठियों को अपने घर में बसाते जाना चाहिए ? फिर यहाँ के नागरिकों का क्या होगा, उनके संसाधानों की पूर्ति कैसे होगी ?

उल्लेखनीय है कि, अफ़गान प्रवासियों के साथ व्यवहार कोई अलग मामला नहीं है। अफ़गानों के प्रति पाकिस्तान की कार्रवाई अरब देशों द्वारा पाकिस्तान, बांग्लादेश और अन्य एशियाई इस्लामी देशों के प्रवासियों के साथ किए जाने वाले व्यवहार से मिलती-जुलती है। आलोचकों का तर्क है कि भारत में धर्मनिरपेक्ष समूह भी इन मुद्दों पर चुप रहते हैं। CAA पर बहस के दौरान, इन धर्मनिरपेक्ष समूहों ने पड़ोसी देशों से धर्म के कारण प्रताड़ना झेलने वाले हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों, सिखों और ईसाइयों के साथ-साथ मुसलमानों को भी शामिल करने की मांग की थी। हालाँकि, जब पाकिस्तान और ईरान जैसे इस्लामी देशों से मुसलमानों को निकालने की बात आती है, तो इन समूहों ने अपनी आवाज़ नहीं उठाई। ऐतिहासिक रूप से, भारत ने सिंध के राजा दाहिर के शासनकाल के दौरान पारसी, यहूदी और मुसलमानों जैसे सताए गए समुदायों को शरण दी है। हालाँकि, आलोचकों का तर्क है कि भारत के ही टुकड़े करके दो इस्लामी मुल्क पाकिस्तान और बांग्लादेश बने हैं, फिर वहां के मुस्लिमों को भारत आने की छूट क्यों देना चाहिए ? उन्होंने ही अलग देश माँगा था।  

अफ़गान प्रवासियों की दुर्दशा पर भारतीय बुद्धिजीवियों और राजनेताओं की चुप्पी CAA-NRC के उनके मुखर विरोध के विपरीत है। आलोचकों का दावा है कि यह चुनिंदा चिंता भारत में मुसलमानों के लिए एक पीड़ित कथा को बढ़ावा देने की कोशिश का हिस्सा है, जिसमे  भारत को अपनी मुस्लिम आबादी की उपेक्षा करने वाले देश के रूप में पेश करना शामिल है।

बता दें कि, अफ़गान प्रवासियों के निर्वासन ने अफ़गानिस्तान में मानवीय संकट को और बढ़ा दिया है, जो पहले से ही आर्थिक अस्थिरता और बुनियादी सेवाओं की कमी से जूझ रहा है। लौटने वाले इन प्रवासियों को संभावित नस्लीय भेदभाव और उत्पीड़न के साथ अनिश्चित भविष्य का सामना करना पड़ रहा है। दुनिया भर के मानवाधिकार समूहों ने सामूहिक निर्वासन की निंदा की है, उनका तर्क है कि वे शरणार्थियों को उन देशों में जबरन वापस भेजने पर रोक लगाने वाले अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हैं, जहाँ उन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ सकता है। इस अंतर्राष्ट्रीय आक्रोश के बावजूद, भारतीय धर्मनिरपेक्ष समूह और बुद्धिजीवी काफी हद तक चुप रहे हैं।

ईरान और पाकिस्तान द्वारा अफ़गान प्रवासियों के निर्वासन ने मुसलमानों के साथ व्यवहार के संबंध में भारतीय धर्मनिरपेक्ष समूहों की स्थिति में कथित विसंगतियों को उजागर किया है। आलोचकों का तर्क है कि इस मुद्दे पर इन समूहों की चुप्पी मानवाधिकारों के प्रति एक चयनात्मक दृष्टिकोण को दर्शाती है, जो मानवीय सिद्धांतों के प्रति निरंतर प्रतिबद्धता के बजाय राजनीतिक आख्यानों से प्रभावित है।

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