कॉरपोरेट कल्चर का एक शब्द बहुत ही जाना पहचाना है, ''स्पून फीडिंग'', जब भी कोई फ्रेशर केंडीडेट ऑर्गनाइजेशन में कदम रखता है तब पुराने कर्मचारी यहीं सोचते है कि ये काम कर सकेगा या नहीं। सभी की नजर उसी केंडीडेट पर टिकी होती है। अगर वह केंडीडेट को गाइड करने पर उससे उम्मीद के अनुसार आउटपुट न मिले तो मैनेजर्स का एग्रेशन बढ़ जाता हैं और कभी वह कह ही देते है कि हम स्पून फीडिंग तो नहीं करवा सकते।
अब ये आखिर स्पून फीडिंग क्या होता है? स्पून फीडिंग यानी चम्मच से पिलाना, उदाहरण के तौर पर उंगली पकड़ कर चलना सिखाना, उंगली पकड़ कर रास्ता दिखाना, हम इस तरह इसे बेहतर समझ सकते हैं। तो क्या कॉरपोरेट में स्पून फीडिंग गलत माना जाता है? रूक्मणी मोटर्स के मैनेजर शशांक जी के अनुसार, इसे स्पून फीडिंग नहीं कहेंगे मगर हां कुछ हद तक कुछ वक्त के लिये किसी भी केंडीडेट को ट्रेनिंग की जरूरत पड़ती ही है। स्पून फीडिंग ये भी होता है कि किसी को थोड़ा बहुत गाइड करने के बाद भी वी वर्क न कर पाए, वह काम को ले कर इतना अनप्रेक्टिकल हो कि उस के पास बैठ कर उसे एक-एक चीज समझाना पड़े और ऑर्गनाइजेशन में किसी के पास इतना समय नहीं होता कि वह हर एक चीज सिखाएं।
इंडिया में एजुकेशन के दौरान चीजो को प्रेक्टिकली नहीं समझा जाता, इसी कारण उन्हे डिग्री कंपलीट होने के बाद जॉब में समस्याएं आती है। किसी ऑर्गनाइजेशन में स्पून फीडिंग तो नामुमकीन है, मगर किसी व्यक्ति को जॉब की जरूरत है और केंडीडेट जेन्युइन है तो अपने लेवल पर मदद करने पर कोई बुराई नहीं है।
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