श्रीनगर: जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाई कोर्ट ने कश्मीरी पंडित महिलाओं के विस्थापित दर्जे को लेकर अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि अगर कोई कश्मीरी पंडित महिला, जिसने 1989 के बाद घाटी में आतंकवाद के कारण पलायन किया, किसी गैर-विस्थापित व्यक्ति से शादी करती है, तो भी उसका विस्थापित दर्जा खत्म नहीं होगा।
1990 के दशक में कश्मीर में हिंदुओं पर हमले और नरसंहार के कारण बड़ी संख्या में कश्मीरी हिंदुओं को घाटी छोड़नी पड़ी। उनके पुनर्वास के लिए सरकार ने कई योजनाएँ चलाईं। 2009 में, कश्मीरी प्रवासियों के लिए विशेष नौकरियाँ घोषित की गईं। इसी योजना के तहत, दो कश्मीरी पंडित महिलाओं ने कानूनी सहायक पद के लिए आवेदन किया। दोनों का चयन हुआ, लेकिन अंतिम सूची में उनके नाम यह कहकर हटा दिए गए कि उन्होंने गैर-विस्थापितों से शादी की थी।
महिलाओं ने इस फैसले को केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) में चुनौती दी, जिसने उनके पक्ष में निर्णय दिया और उन्हें नियुक्ति देने का निर्देश दिया। इसके खिलाफ सरकार ने हाई कोर्ट में अपील की। हाई कोर्ट ने भी CAT का फैसला बरकरार रखते हुए कहा कि शादी के कारण विस्थापित दर्जा खत्म नहीं होता। कोर्ट ने कहा कि नौकरी के विज्ञापन में ऐसा कोई नियम नहीं था कि शादी के आधार पर किसी की उम्मीदवारी रद्द होगी।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि महिलाओं को मजबूर होकर अपना घर छोड़ना पड़ा था। उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे केवल नौकरी पाने के लिए अविवाहित रहें। कोर्ट ने इसे भेदभावपूर्ण और न्याय के खिलाफ बताया। साथ ही, कोर्ट ने इस पितृसत्तात्मक सोच पर भी सवाल उठाया कि पुरुषों का दर्जा विवाह के बाद नहीं बदलता, लेकिन महिलाओं के लिए ऐसा सोचा जाता है। कोर्ट ने सरकार को चार हफ्ते के भीतर दोनों महिलाओं को नौकरी देने का आदेश दिया।
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