बेंगलुरू: कर्नाटक विधानसभा चुनाव की असर लोकसभा चुनाव 2019 तक होगा. यह बात सियासी गलियारों की गूंज बन गई है. मगर यह यु ही नहीं है. कर्नाटक चुनाव अब कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस के लिए एक राजनीतिक लड़ाई से कहीं ज्यादा बड़े बन गए हैं. राजनीतिक इतिहास को करवट देते ये चुनाव कई मायनों में अहम है.
जैसे -कर्नाटक कुछ मामलों में पारंपरिक रहा है. पिछले तीन दशक से किसी भी सत्ताधारी पार्टी ने यहां दुबारा सरकार नहीं बनाई है. इस चुनाव में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री सिद्धारमैया इस ट्रेंड को तोड़ पाने में सफल होंगे. काफी लंबे समय से ऐसा कभी नहीं हुआ कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार है, राज्य में भी उसी पार्टी की सरकार बन जाए. कर्नाटक चुनाव लंबे समय से ही दो पार्टियों के बीच ही लड़ा गया है. इस चुनाव में अब तक के सर्वे देखें तो चुनाव के बाद गठबंधन के आसार काफी ज्यादा हैं. जेडीएस के लिए यह करो या मरो की स्थिति भी हो सकती है. सिद्धारमैया ने जाति और स्थानीय मुद्दों के साथ राज्य ध्वज और लिंगायत जैसे मुद्दों को उठाकर अपनी जीत पक्की करने की कोशिश की है. कर्नाटक चुनाव मोदी और राहुल के लिए कड़ी परीक्षा हो सकती है. क्योंकि गैर हिंदी भाषी राज्यों में बीजेपी और कांग्रेस के बीच यह पहली लंबी लड़ाई है.
कुल मिलाकर बीजेपी जहा देश मे हर कही एक तरफ़ा जीत से ओत प्रोत हो कर एक और राज्य को भगुआ रंग मे रंगने को आतुर है साथ ही विजय रथ को आगे बढ़ाते हुए 2019 लोकसभा का शंखनाद भी अपने अंदाज मे ही करना चाहती है, तो दूसरी ओर कांग्रेस के लिए ये अस्तित्व को बचाने और पुनः उठ खड़े होने का मौका है. लगातार हार, भीतर घात, अकुशल नेतृत्व, मजबूत विपक्ष जैसे कई फैक्टर है जिन्होंने कांग्रेस को हाशिये पर ला खड़ा किया है. ऐसे मे कर्नाटक चुनाव कांग्रेस के लिए संजीवनी है. इस सूबे को जीत कर कांग्रेस सिर्फ एक राज्य नहीं जीतेगी अपितु फिर से पुनः गठन की ओर अपना पहला कदम भी बढ़ाएगी. वही देवगौड़ा एंड पार्टी किंगमेकर के रूप में देखे जा रहे है. देश की सियासत की दशा और दिशा के निर्धारण मे कर्नाटक चुनाव का अहम योगदान होगा.
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