Apr 21 2018 05:00 AM
किताबघर की मौत...
ये रस्ता है वही
तुम कह रहे हो
यहाँ तो पहले जैसा कुछ नहीं है!
दरख्तों पर न वो चालाक बन्दर
परेशाँ करते रहते थे
जो दिन भर
न ताक़ों में छुपे सूफी कबूतर
जो पढ़ते रहते थे
तस्बीह दिन भर
न कडवा नीम इमली के बराबर
जो घर-घर घूमता था
वैद बन कर
कई दिन बाद
तुम आए हो शायद?
ये सूरज चाँद वाला बूढ़ा अम्बर
बदल देता है
चेहरे हों या मंज़र
ये आलीशान होटल है
जहाँ पर
यहाँ पहले किताबों की
दुकां थी.....
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