वो समय जब महात्मा गांधी जी ने भी नेताजी सुभाष चंंद्र बोस से मान ली थी हार...

वो समय जब महात्मा गांधी जी ने भी नेताजी सुभाष चंंद्र बोस से मान ली थी हार...
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देश के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों में से एक नेताजी सुभाष चंंद्र बोस ने अपने क्रांतिकारी रवैये से ब्रिटिश राज को भी झकझोर कर रख दिया था। सभी उन्हें ‘नेताजी’ बोलकर बुलाया करते थे। उन्होंने देश की स्वतंत्रता में अहम योगदान दिया था। एक समय ऐसा भी था जब वो देश में अपनी अलग पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में भी आए थे। आइए जानें ऐसा ही एक ऐतिहास‍िक मामला। 

वर्ष 1937 का वो समय था जब कांग्रेस ने सरकार बनाई तथा भूमि पर उतर कर बहुत काम करने लगे। उस समय वाम राजनीति भी अपने शि‍खर पर थी। तब यह बोला जा रहा था कि यही सही वक़्त है जब आंदोलन को अमली जामा पहनाकर अंग्रेज सरकार की चूलें हिला दी जाएं तथा पूर्ण स्‍वराज प्राप्त क‍िया जाए। वर्ष 1938 में सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के अध्‍यक्ष बनाए गए। वाम संगठनों का साइड वो भी लेते थे। फिर वर्ष 1939 में वो फिर इस पद के लिए अभ्यर्थियों की रेस में आए। उन्‍होंने कहा था कि मैं नई विचारधारा लाऊंगा। इस पर सरदार पटेल, कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद का तर्क था कि ये अध्यक्ष का काम नहीं है।

फिर इस इलेक्शन में गांधीजी के बोलने पर से इन्‍हीं सब नेताओं ने पट्टाभि सीतारमैया को प्रत्याशी बनाया, किन्तु हुआ ये कि चुनाव बोस जीत गए। क्योकि सीतारमैया गांधी जी की ओर से खड़े किए गए प्रत्याशी थे, इसलिए गांधीजी ने तब ये कहा, ये मेरी हार है। फिर वो समय भी आया जब ब्रिट‍िश शासन के समक्ष द्वितीय विश्व-युद्ध की चुनौती आ गई। अब ऐसे में सुभाष बोस की स्‍ट्रैटजी थी कि ये एकदम सही वक़्त है कि आंदोलन किया जाए। अंग्रेजों पर पहले से दबाव है, आंदोलन का दबाव होगा तो हमें स्वतंत्रता सरलता से मिल सकती है। किन्तु तब उनके शेष लोग इससे सहमत नहीं हुए। फिर आपसी असहमति आहिस्ता-आहिस्ता इतनी बढ़ गई कि सुभाष बोस ने कांग्रेस छोड़कर ‘फॉरवर्ड ब्लाक’ के नाम से नई पार्टी बना ली। उनकी भांति उनकी पार्टी की भी पॉपुलैरिटी बहुत अधिक थी।

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