आप सभी ने कभी ना कभी कांवड़ यात्रा की होगी या करने की मन में इच्छा होगी। आपको बता दें कि इस यात्रा के दौरान जहां कांवड़िए आम जनता में श्रद्धा व विश्वास का भाव पैदा करते हैं, वहीं उनके कंधे पर रखी कांवड़ भी आकर्षण का केंद्र रहती है। जी हाँ और जब कांवड़िए आते हैं तो उन्हें देखने के लिए बच्चों, युवाएं और बड़ों की भीड़ लग जाती है। अब आज हम आपको बताते हैं कांवड़ यात्रा की शुरुआत कैसे हुई?
कांवड़ यात्रा को लेकर पहली मान्यता- एक मान्यता के अनुसार, कांवड़ की शुरुआत भगवान परशुराम ने की थी। भगवान परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर पुरा महादेव के मंदिर पर चढ़ाया था। उस समय श्रावण मास ही चल रहा था। इसी के बाद से कांवड़ यात्रा शुरू हुई।
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दूसरी मान्यता- दूसरी मान्यता समुद्र मंथन से जुड़ी हुई है। कहा जाता है समुद्र मंथन भी श्रावण मास में ही हुआ था। मंथन से निकले विष को सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान शिव ने अपने कंठ में समाहित किया था, जिससे उनका गला नीलवर्ण हो गया और वही नीलकंठ महादेव कहलाए। विष की गर्मी को शांत करने के लिए देवी-देवताओं ने विभिन्न नदियों का जल लाकर भगवान शिव पर चढ़ाया और इसी के साथ कांवड़ लाकर भगवान शिव को अर्पित करने की परंपरा शुरू हुई।
तीसरी मान्यता- कहा जाता है सबसे पहले त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने श्रावण मास में अपने माता-पिता की इच्छा पूरी करने के लिए कांवड़ यात्रा की थी। वे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार ले गए थे। वहां उन्होंने माता पिता को गंगा में स्नान करवाया और लौटते समय श्रवण कुमार गंगाजल लेकर आए, जिसे उन्होंने माता-पिता के साथ शिवलिंग पर चढ़ाया और तबसे यात्रा की शुरुआत हुई।
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