भारत के कोने-कोने में यूं तो दशहरे का त्यौहार काफी धूम-धाम से मनाया जाता है, हालांकि मैसूर और कुल्लू के दशहरा पर्व की चर्चा देशभर में होती है. यहां का दशहरा देशभर में काफी ख़ास और लोकप्रिय है. आइए जानते हैं कैसे ?
कुल्लू का दशहरा
दशहरा यहां पर दशमी के नाम से जाना जाता है और यहां पर दशहरा, दशहरा से लेकर अगले 7 दिनों तक मनता है. सर्वप्रथम यहां के राजा द्वारा सभी देवी-देवताओं को रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ का न्योता दिया जाता है और सभी को धालपुर घाटी आमंत्रित किया जाता है. दशहरा के दिन 100 की संख्या से अधिक देवी-देवताओं की पालकी सजाई जाती है. आगामी 7 दिनों तक रथ यात्रा आयोजित होती है. रघुनाथ जी, माता सीता और हिडिंबा देवी रथ में प्रमुख रूप से विराजित रहते हैं. 7 दिन के उत्स्व के छठवें दिन को 'मोहल्ला' कहते है. सातवें दिन व्यास नदी के किनारे लंका का दहन किया जाता है. ख़ास बात यह है कि
रावण, मेघनाद या कुंभकर्ण आदि के पुतले धन न कर यहां पर मानव के भीतर समाहित 5 विकार काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के नाश के लिए 5 जानवरों की बलि दी जाती है. अंतिम चरण में रथ को पुनः रघुनाथ जी के मंदिर में पुनर्स्थापित कर दिया जाता है और यह त्यौहार इस तरह से 7 दिन के बाद समाप्त होता है.
मैसूर का दशहरा...
मैसूर का दशहरा भी भारत समेत पूरे विश्व में एक ख़ास पहचान रखता है. यहां का दशहरा 10 दिनों का होता है. यहां की विजयादशमी मनाने की परंपरा का इतिहास 600 वर्षों से भी अधिक पुराना है. इस दौरान चामुंडेश्वरी मंदिर और मैसूर महल को बहुत अच्छे से सजाया जाता है और माता का विधिवत पूजन किया जाता है. उत्सव के अंतिम दिन को जम्बू सवारी या अम्बराज कहते हैं. ख़ास बात यह है कि इस अंतिम दिवस पर यहां 'बलराम' नाम के हाथी और अन्य 11 गजराज को भी बहुत ही सुंदर तरह से सजाया जाता है. माता दुर्गा का स्वरूप माता चामुंडेश्वरी फिर बलराम नाम के हाथी पर सवार होकर नगर भ्रमण पर निकलती हैं. बलराम का 750 किलो वजनी हौदा होता है. बता दें कि जिसमें करीब 80 किलो सोना लगा हुआ रहता है.
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