इस पेड़ के दर्शन के बिना अधूरा होता है कुंभ स्नान

इस पेड़ के दर्शन के बिना अधूरा होता है कुंभ स्नान
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अगर बात करें पौराणिक कथाओं की तो उनके अनुसार प्रयाग में स्नान के बाद जब तक अक्षय वट का पूजन एवं दर्शन न हो, तब तक लाभ नहीं मिलता है. जी हाँ, कहते हैं अक्षय वटवृक्ष दर्शन जरूर करना चाहिए क्योंकि उसके दर्शन के बिना कुम्भ अधूरा माना जाता है. मुगल सम्राट अकबर के किले के अंदर बने पातालपुरी मंदिर में स्थित इस अक्षय वट मंदिर को सबसे पुराना मंदिर भी बताया जाता है और जमीन के नीचे बने इस मंदिर में ही यह अक्षय वट है. अब आइए बताते हैं आपको इसकी पौराणिक कथा.

पौराणिक कथाओं के अनुसार - जब एक ऋषि ने भगवान नारायण को ईश्वरीय शक्ति दिखाने की चुनौती दी तो उन्होंने क्षणभर के लिए पूरे संसार को जलमग्न कर दिया था. फिर इस पानी को गायब भी कर दिया था. कहा जाता है कि इस दौरान जब सारी चीजें पानी में समा गई थीं, तब इस अक्षय (बरगद का पेड़) का ऊपरी भाग दिखाई दे रहा था. इसी कारण इस वृक्ष को पुराना मानते हैं और इसको इतना महत्व देते हैं. अकबर के इस किले का इस्तेमाल इस समय भारतीय सेना द्वारा किया जा रहा है. कहते हैं इस किले में एक सरस्वती कूप भी बना है. जिसके बारे में कहा जाता है कि यहीं से सरस्वती नदी जाकर गंगा-यमुना में मिलती थीं. कहा जाता है कि मुगलों ने एक बार इस वृक्ष को जला दिया था, क्योंकि पहले स्थानीय लोग इसकी पूजा करने के लिए किले में आते थे, जो मुगलों को पसंद नहीं था. मान्यता है कि इस वृक्ष के नीचे जो भी इच्छा व्यक्त की जाती थी वो पूरी होती थी. अक्षय वट वृक्ष के निकट ही कामकूप नाम का तालाब था. मोक्ष प्राप्ति के लिए लोग यहां आते थे और वृक्ष पर चढ़कर तालाब में छलांग लगा देते थे. इसी कारण से बाद में इस जगह को बंद कर दिया गया.

आप सभी को बता दें कि 644 ईसा पूर्व में चीनी यात्री ह्वेनसांग यहां आया था, तब कामकूप तालाब में इंसानी नरकंकाल देखकर दुखी हो गया था. उसने अपनी किताब में भी इसका जिक्र किया था. उसके जाने के बाद ही मुगल सम्राट अकबर ने यहां किला बनवाया. लोग कहते हैं कि भगवान राम और सीता ने वन जाते समय इस वट वृक्ष के नीचे तीन रात तक निवास किया था. अकबर के किले के अंदर स्थित पातालपुरी मंदिर में अक्षय वट के अलावा 43 देवी-देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित हैं.

अक्षय वट का संबंध हिंदू धर्म के अलावा जैन और बौद्धों से भी है. इसी के साथ भगवान बुद्ध ने कैलाश पर्वत के निकट प्रयाग के इसी अक्षय वट का एक बीज बोया था. जबकि जैन धर्म में मान्यता है कि उनके तीर्थंकर ऋषभदेव ने अक्षय वट के नीचे तपस्या की थी. प्रयाग में इस स्थान को ऋषभदेव तपस्थली के नाम से जानते हैं.

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