भोपाल: मध्य प्रदेश कि राजनीति में मुस्लिम नेताओं की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही है. ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य की लगभग दस फीसदी आबादी वाले इस वर्ग के प्रति हमदर्दी जताने वाली सियासी पार्टियां सियासत में उन्हें भागीदारी देने के मसले पर ईमानदार नजर नहीं आ रही हैं, सूबे के दो प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस ने इस बार मात्र औपचारिकता के नाते मुस्लिमों को टिकट दिए हैं,
इस बार के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने पूरे प्रदेश में दो मुस्लिमों को, तो भाजपा ने मात्र एक मुस्लिम को उम्मीदवार बनाया है.
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मध्य प्रदेश की सियासत में मुस्लिम समुदाय उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल की तरह भले ही राजनीतिक रसूख नहीं रखता है, लेकिन वोट बैंक के लिहाज से कांग्रेस-भाजपा दोनों दलों को मालूम है कि ये समुदाय मध्यप्रदेश के चुनाव को ख़ासा प्रभावित कर सकता है. चूंकि मप्र में बसपा, सपा, राजद या टीएमसी जैसी पार्टियां नहीं हैं, लिहाजा यहां के मुस्लिमों के पास कांग्रेस को वोट देने के अलावा अन्य विकल्प भी नहीं है, हालांकि भाजपा ने पिछले एक दशक में मुस्लिमों के करीब आने की भरपूर कोशिशें की लेकिन वो इसमें सफल नहीं हो पाई.
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अगर इतिहास की बात करें तो 1993 के विधानसभा चुनाव में एक भी मुस्लिम प्रत्याशी ने जीत दर्ज नहीं की थी, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एजी कुरैशी, इब्राहिम कुरैशी को छह-छह महीने के लिए मंत्री पद दिया था. 1998 में आरिफ अकील ने जीत दर्ज की थी, तब से वे लगातार विधायक चुने जाते रहे हैं. 1962 में चुनावों में सबसे ज्यादा सात मुस्लिम विधायक चुने गए थे, इसके बाद से लगातार मुस्लिम प्रतिनिधत्व घटता चला गया है. 1972 में 6, 1957-1985 और 1998 में 5-5 और 1967, 1977 और 1990 में 3-3 मुस्लिम विधायक बने . 1985 और 1990 में भाजपा की टिकट पर चुनाव जीतकर एक-एक विधायक विधानसभा तक पहुंचा था.
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