धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन के विवाह के बारे में विचार करते हैं और गांधारी से कहते हैं कि अगर दुर्योधन पांचाल नरेश द्रौपदी का स्वयंवर जीत लें तो पांचाल नरेश से हस्तिनापुर की मित्रता हो जाएगी. वहीं वहां वन में अपना जीवन व्यतीत करते पांचों पांडव और कुंती, कुछ ब्राह्मणों को भोजन का निमंत्रण देते हैं. वहीं उन्हें पता चलता है कि काम्पिल्य नगरी में राजा द्रुपद ने अपनी पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर रखा है और भोजन करते हुए वो पांचों पांडव को द्रौपदी की कथा सुनाते हैं.ब्राह्मण कथा सुनाना शुरू करते हैं वो इस बात से अनजान हैं की जिन्हें वो कथा सुना रहे हैं वो हस्तिनापुर के ही राजकुमार हैं.
ब्राह्मण द्रौपदी की जन्मकथा सुनाते हुए बताते हैं कि आचार्य द्रोण और राजा द्रुपद बचपन के मित्र थे. उसी मित्रता की भावना से उत्तेजित होकर राजा द्रुपद ने अपना आधा राज पाठ द्रोण के अधिकार कर दिया जिसे आचार्य द्रोण सच मानने लगे. जब द्रुपद राजा बने तो द्रोण वहां पहुंच गए, जो द्रुपद को अच्छा नहीं लगा और उन्होंने द्रोण का अपमान कर दिया. इसके बाद द्रोणाचार्य को हस्तिनापुर के राजकुमारों के प्रशिक्षण का कार्य मिल गया और द्रोण ने अपने शिक्षकों से गुरुदक्षिणा में पांचाल राज्य को मांग लिया.आचार्य द्रोण ने मित्रता की लाज रखते हुए द्रुपद से जीता हुआ पांचाल राज्य का आधा हिस्सा द्रुपद को सौंप दिया.
आपकी जानकारी के लिए बता दें की जिसके बाद द्रुपद का हृदय प्रतिशोध की अग्नि में जलने लगा और वो एक ऐसे ऋषि की खोज में निकल पड़े जो उन्हें वरदान में पुत्र दे, जो द्रोण का वध कर सके. ऋषि उपयाज ने उन्हें ये वरदान देने से मना कर दिया और अपने जेष्ठ भ्राता याज के पास जाने को कहा. द्रुपद ऋषि याज के पास आते हैं और पुत्र पाने के लिए एक यज्ञ करने को कहते हैं. वहीं ऋषि याज यज्ञ शुरू करते हैं और यज्ञ की अग्नि से द्रुपद को एक पुत्र धृष्टद्युम्न और एक पुत्री द्रौपदी की प्राप्ति होती है.
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