हमारे देश में पेड़ को तो वैसे भी पूजा जाता है. अलग अलग रूप में उन्हें देखा जाता है और उसी के चलते उन्हें पूजा भी जाता है. कुछ ऐसी चीजे होती है जो परंपरा के नाम से सदियों से चली आती है. बात करें पेड़ की पूजा करने की तो ऐसे रिवाज कई जगहों पर माने जाते हैं. आज हम ऐसे ही पेड़ की बात कर रहे हैं जो लोगों के जीने की वजह बना हुआ है. जी हाँ, उसी से उनका जीवन यापन होता है. आदिवासी लोग इस पेड़ को काटने नहीं देते हैं. वे इसे अपनी परंपराओं का हिस्सा मानते हैं.
बता दें, आदिवासी अपने घर के हर सदस्यों को जंगल ले जाते हैं. छोटे बच्चों को भी पेड़ों के नीचे छोड़ दिया जाता है. उन्हें भी बचपन से ही महुआ चुनना सिखाया जाता है. बता दें, महुआ कलेक्ट करने का समय भी तय है. आदिवासी अल सुबह से ही महुआ एकत्र करने जंगल की ओर निकल जाते हैं. वे दोपहर तक जंगलों में ही रहते हैं. इसके बाद सुबह मवेशियों से महुए को बचाने की जुगत भी की जाती है. पूरा परिवार दिन भर जंगल में रहकर महुआ जमा करते हैं.
महुए का पेड़ आदिवासियों के लिए किसी कल्पवृक्ष से कम नहीं है. महुए का फूल ही नहीं, इसके फल और बीज भी उपयोगी हैं. आदिवासी परिवार मार्च से अप्रैल तक महुए का फूल बीनते हैं. जून में इन्हीं गुच्छों में टोरा फल पककर तैयार हो जाता है, जिससे तेल निकाला जाता है. इसके अलावा बता दें, महुआ औषधीय गुणों से भी भरपूर है. एक पेड़ हर सीजन में औसतन 5000 रु. तक की आमदनी देता है. अकेले दक्षिण बस्तर में ही लगभग 3 लाख महुए के पेड़ हैं.
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