आज़ाद भारत का सबसे वीभत्स नरसंहार, जब बाघों को लग गई थी 'इंसानी गोश्त' खाने की लत

आज़ाद भारत का सबसे वीभत्स नरसंहार, जब बाघों को लग गई थी 'इंसानी गोश्त' खाने की लत
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कोलकाता: 31 जनवरी 1969, वो तारीख जब पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में एक द्वीप पर बसे हिंदू शरणार्थियों पर पुलिस ने अंधाधुंध गोलीबारी की। इस घटना को मरीचझापी नरसंहार (Marichjhapi Massacre) के नाम से जाना जाता है। आजाद भारत के इस सबसे भीषण नरसंहार में मार डाले गए हिंदू शरणार्थियों की तादाद को लेकर पुष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। अब इस नरसंहार की याद में बंगाल भाजपा की तरफ से मार्च किया गया है। इस मार्च का मकसद उन असहाय शरणार्थियों को याद करना है, जिन्हे वामपंथी शासनकाल में मौत के घाट उतार दिया गया।

मरीचझापी में मार डाले गए हिंदू शरणार्थियों की तादाद सरकारी फाइलों में लगभग 10 बताई जाती है। जब अलग-अलग आकलनों में यह आंकड़ा 10 हजार तक पहुँच जाता है। जिनकी हत्याएं हुईं, उनमें अधिकतर दलित (नामशूद्र) थे। जिनकी शह पर यह नरसंहार हुआ, वह दलितों के वोट से बंगाल में दशकों तक शासन करने वाले वामपंथी थे। वहीं, नरसंहार और उसे इतिहास के पन्नों से मिटा देने की साजिश को केंद्र की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस ने मौन सहमति दे रखी थी। बंगाल में अपने तीन दशक के राज में वामपंथियों ने जो खूनी दहशत कायम की थी, उसका ही नतीजा है कि लगभग चार दशक पुरानी इस घटना की अधिक जानकारी नहीं मिलती। अमिताव घोष की पुस्तक ‘द हंग्री टाइड्स’ इसी नरसंहार की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। इसके अलावा आनंद बाजार पत्रिका और स्टेट्समैन जैसे उस वक़्त के समाचार पत्रों में भी इस नरसंहार का एकाध विवरण मिलता है। इसका सबसे खौफनाक और प्रमाणिक विवरण पत्रकार दीप हालदार की एक पुस्तक ‘ब्लड आइलैंड (Blood Island: An Oral History of the Marichjhapi Massacre)’ में देखने को मिलता है। दीप ने इस नरसंहार में जीवित बच गए लोगों और इससे संबंधित अन्य किरदारों के मार्फत उस खौफनाक घटनाओं की वीभत्सता दिखाई है।

आप जानकर हैरान हो जाएँगे कि वाम मोर्चे की सरकार ने जिन लोगों का क़त्ल करवाया, उन्हें यहाँ बसने के लिए भी इन्ही वामपंथियों ही प्रोत्साहित किया था। यह उस समय की बात है जब वामपंथी सत्ता में नहीं आए थे और हिंदू नामशूद्र शरणार्थी उन्हें अपना शुभचिंतक मानते थे। वामदलों के कहने पर खासकर, राम चटर्जी जैसे नेताओं के बुलावे पर ये नामशूद्र शरणार्थी दंडकारण्य से आकर दलदली सुंदरबन डेल्टा के मरीचझापी द्वीप पर आकर बस गए। अपने पुरुषार्थ के बल पर बिना किसी सरकारी सहायता के इस निर्जन द्वीप को रहने योग्य बना लिया। खेती करने लगे, मछली पकड़ना शुरू किया। यहाँ तक कि इन्होने खुद ही स्कूल और क्लीनिक भी खोल लिए। नामशूद्र दलित हिंदुओं का यह समूह उस पलायन का एक छोटा सा हिस्सा था, जो बांग्लादेश से प्रताड़ित होकर भारत के विभिन्न हिस्सों में आकर बसे थे। मगर, सत्ता पाने के बाद वामपंथियों को ये शरणार्थी बोझ लगने लगे।

एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी 1979 में मरीचझापी द्वीप पर बांग्लादेश से आए लगभग 40,000 शरणार्थी बसे थे। वन्य कानूनों का हवाला दे वामपंथी सरकार ने उन्हें खदेड़ने का षड़यंत्र रचा। 26 जनवरी को मरीचझापी में धारा 144 लगा दी गई। टापू को 100 मोटर बोटों ने घेर लिया। दवाई, खाद्यान्न समेत तमाम वस्तुओं की सप्लाई रोक दी गई। पीने के पानी के एकमात्र स्रोत में जहर मिला दिया गया। पाँच दिन बाद 31 जनवरी 1979 को हुई पुलिस की अंधाधुंध गोलीबारी में शरणार्थियों को निर्दयता से मार डाला गया। प्रत्यक्षदर्शियों का अनुमान है कि इस दौरान 1000 से अधिक लोग मारे गए। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, हाई कोर्ट के आदेश पर 15 दिन बाद रसद आपूर्ति की इजाजत लेकर एक टीम यहाँ पहुंची थी। इसमें जाने-माने कवि ज्योतिर्मय दत्त भी शामिल थे। दत्त के मुताबिक, उन्होंने भूख से मरे 17 व्यक्तियों के शव देखे। 31 जनवरी की गोलीबारी के बाद भी लगभग 30,000 शरणार्थी मरीचझापी में बचे हुए थे। मई 1979 में इन्हें वहां से खदेड़ने के लिए पुलिस के साथ वामपंथी कैडर भी पहुॅंचे। 

14-16 मई के बीच जनवरी से भी भीषण नरसंहार का दौर चला। ‘ब्लड आइलैंड’ में इस घटना का बेहद दर्दनाक ब्यौरा दिया गया है। मकान और दुकानें जला डाली गईं, महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुए, सैंकड़ों हत्याएँ कर लाशों को पानी में फेंक दिया गया। जो बच गए उन्हें ट्रकों में जबरदस्ती भर दुधकुंडी कैम्प में भेज दिया गया। पुस्तक में एक प्रत्यक्षदर्शी के हवाले से कहा गया है कि, '14-16 मई 1979 के बीच आजाद भारत में मानवाधिकारों का सबसे वीभत्स उल्लंघन किया गया। पश्चिम बंगाल की सरकार ने जबरदस्ती 10 हजार से अधिक लोगों को द्वीप से खदेड़ दिया। दुष्कर्म, हत्याएँ और यहाँ तक की जहर देकर लोगों की हत्याएं की गई और समंदर में लाशें दफन कर दी गईं। कम से कम 7000 हजार मर्द, महिलाएँ और बच्चे काल के गाल में समा गए।' इस पुस्तक में मनोरंजन व्यापारी के हवाले से बताया गया है कि लाशें जंगल में भी फेंके गए और सुंदरबन के बाघों को इंसानी गोश्त खाने की लत गई।  

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