दुग्ध विकास बनाम पर्यावरण

दुग्ध विकास बनाम पर्यावरण
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पोषण आहार-तत्व सम्बन्धी विज्ञान है। अर्थात आहार तत्वों द्वारा मनुष्य के शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन एवं विश्लेषण। दूसरे शब्दों में शरीर आहार सम्बन्धी सभी प्रक्रियाओं का नाम ही पोषण है। पोषण का सम्बन्ध भोजन व उस भोजन के सामाजिक,आर्थिक व मनोवैज्ञानिक प्रभावों से भी है। आहार और स्वास्थ्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। भोजन के वे सभी तत्व जो शरीर में आवश्यक कार्य करते हैं,उन्हें पोषण तत्व कहते हैं। यदि ये पोषण तत्व हमारे भोजन में उचित मात्रा में विद्यमान न हों,तो शरीर अस्वस्थ हो जाएगा। कार्बोहाइड्रेट,प्रोटीन,वसा,विटामिन,खनिज-लवण व पानी प्रमुख पोषण तत्व हैं। हमारे भोजन में कुछ ऐसे तत्व भी होते हैं,जो पोषण तत्व नहीं होते जैसे रंग व खुशबू देने वाले रासायनिक पदार्थ। ये आवश्यक तत्व जब (सही अनुपात में) हमारे शरीर की आवश्यकता अनुसार उपस्थित होते हैं,तब उस अवस्था को सर्वोत्तम पोषण या समुचित पोषण की संज्ञा दी जाती है। यह सर्वोत्तम पोषण स्वस्थ शरीर के लिए नितान्त आवश्यक है। कुपोषण उस स्थिति का नाम है जिसमें पोषक तत्व शरीर में सही अनुपात में विद्यमान नहीं होते हैं अथवा उनके बीच में असंतुलन होता है। अत: हम कह सकते हैं कि कुपोषण अधिक पोषण व कम पोषण दोनों को कहते हैं। कम पोषण का अर्थ है किसी एक या एक से अधिक पोषण तत्वों का आहार में कमी होना। उदाहरण - विटामिन ए की कमी या प्रोटीन की कमी आदि। अधिक पोषण से अर्थ है एक या अधिक पोषक तत्वों की भोजन में अधिकता होना। उदाहरण,जब व्यक्ति  एक दिन में ऊर्जा खपत से अधिक ऊर्जा ग्रहण करता है,तो वह वसा के रूप में शरीर में एकत्रित  हो जाती  है और उससे व्यक्ति  मोटापे का शिकार हो जाता है। दूध एक ऐसा आहार है जिसमे सभी पोषक तत्व संतुलित मात्रा में पाए जाते हैं। दक्षिण पूर्वी एशिया में दूध का विवरण बकरी और भेंड़ के दूध से मिलता है। इसका समय ईसा से 7 से 8 हज़ार वर्ष पूर्व का है। यूरोप में दूध का विवरण ईसा से 4 से 5 हज़ार वर्ष पूर्व से मिलता है। दूध ऊर्जा युक्त आहार है।

दूध शरीर को तुरंत ऊर्जा प्रदान करता है। दूध में एमिनो एसिड एवं फैटी एसिड मौजूद होते हैं। दूध संपूर्ण आहार है। दूध के बिना जीवन अधूरा है। दूध एक अपारदर्शी सफेद द्रव है जो मादाओं के दुग्ध ग्रन्थियों द्वारा बनाया जाता  है। नवजात शिशु तब तक दूध पर निर्भर रहता है जब तक वह अन्य पदार्थों का सेवन करने में अक्षम होता है। दूध में मौजूद संघटक हैं - पानी, ठोस पदार्थ, वसा, लैक्टोज, प्रोटीन, खनिज वसा विहिन ठोस। अगर हम दूध में मौजूद पानी की बात करें तो सबसे ज्यादा पानी गधी के दूध में 91.5% होता है, घोड़ी में 90.1%, मनुष्य में 87.4%, गाय में 87.2%, ऊंटनी में 86.5%, बकरी में 86.9% होता है। दूध में कैल्शियम ,मैग्नीशियम,ज़िंक,फास्फोरस,आयोडीन,आयरन,पोटैशियम,फोलेट्स,विटामिन-ए,विटामिन- डी,राइबोफ्लेविन,विटामिन बी-12,प्रोटीन आदि मौजूद होते हैं। गाय के दूध में प्रति ग्राम 3.14 मिली ग्राम कोलेस्ट्रॉल होता है। गाय का दूध पतला होता है। जो शरीर मे आसानी से पच जाता है। एक भी खाद्य पदार्थ सभी की आपूर्ति नहीं करता है,लेकिन दूध लगभग सभी की आपूर्ति करता है। आयुर्वेद के अनुसार गाय के ताजा दूध को ही उत्तम माना जाता है। पुराणों में दूध की तुलना अमृत से की गई हैं,जो शरीर को स्वस्थ मजबूत बनाने के साथ-साथ कई सारी बीमारियों से बचाता है। अथर्ववेद में लिखा है कि दूध एक सम्पूर्ण भोज्य पदार्थ है। इसमें मनुष्य शरीर के लिए आवश्यक वे सभी तत्व हैं जिनकी हमारे शरीर को  आवश्यकता होती है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल  के 71 वें  सूक्त के  छटवें  मन्त्र में कहा है : गोषु प्रियम् अमृतं रक्षमाणा (ऋग्वेद 1/71/6) इसका अर्थ है गोदुग्ध अमृत है यह  बीमारियों (रोगों) से  हमारी रक्षा करता है। चरक शास्त्र संसार के प्राचीनतम चिकित्सा शास्त्रों में गिना जाता है। चरक सूत्र स्थान-27/224(1.सूत्रस्थानम्,27.अन्नपानविध्यध्याय(सेक्शन/अनुभाग/मंडल-1,चैप्टर/अध्याय/सूक्त 27,ऋचाएं / वर्स  217-224)में दूध के गुणों का वर्णन इस प्रकार किया गया है स्वादु शीतं मृदु स्निग्धं बहलं श्लक्ष्णपिच्छिलम्। गुरु मन्दं प्रसन्नं च गव्यं दशगुणं पयः।।217।। चरक 27/217, अर्थात गाय का दूध मीठा,ठंडा, शीतल,नर्म,चिपचिपा,चिकना,पतला,भारी,सुस्त और स्पष्ट–इन दस गुणों से युक्त है। इस प्रकार यह समानता के कारण समान गुणों वाले ओजस को बढ़ाता है।

इसलिए  गाय के दूध को शक्तिवर्धक और रसना के रूप में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। गाय की तुलना में भैंस का दूध भारी और ठंडा होता है। अतएव गाय के दूध को पचाना आसान होता है। दूध  को मीठा एवं शुद्ध बनाए रखने के लिए  लुई पास्चर के पाश्चराइजेशन सिद्धांत का उपयोग किया गया। पाश्चराइजेशन,गर्मी-उपचार प्रक्रिया जो कुछ खाद्य पदार्थों और पेय पदार्थों में रोगजनक सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर देती है। दूध का पाश्चुरीकरण,व्यापक रूप से कई देशों में  किया जाता है। दूध को  पाश्चराइज करने के लिए अधिक समय और कम तापमान की आवश्यकता होती है जिसमे  लगभग 63 डिग्री सेंटीग्रेड (145 डिग्री फारेनहाइट) तापमान और 30 मिनट तक का समय होता है। वैकल्पिक रूप से दूध को पाश्चराइज करने के लिए कम समय और उच्च तापमान की आवश्यकता होती है,जिसमे 72 डिग्री सेंटीग्रेड (162 डिग्री फारेनहाइट) तापमान और 15 सेकंड तक का समय होता है। दूध में पाए जाने वाले मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस और गैर-बीजाणु बनाने वाले अन्य रोग-रोधी सूक्ष्मजीवों को नष्ट करने के लिए समय और तापमान आवश्यक है। पाश्चराइजेशन प्रक्रिया से दूध में स्थित हानिकारक जीवाणुओं को ख़त्म  करने में आसानी होती है। दूध के व्यवसाय में 19 वीं  सदी के अंत तथा 20 वीं सदी के शुरू में औद्योगीकरण ने बहुत तेजी से प्रगति की है। दूध को प्लांट में जाने पर उसको सबसे पहले होमोजेनाइज़ करते हैं जिससे दूध के वसायुक्त कण एकसमान साइज के हो जाएं। इस प्रक्रिया को होमोजेनाइज़ेशन (समांगीकरण) कहते हैं। दूध के प्रकार- (क) सम्पूर्ण दूध- स्वस्थ पशु से प्राप्त किया गया दूध जिसके संघटन में ठोस परिवर्त्तन न किया गया हो,पूर्ण दूध कहलाता है। इस प्रकार के दूध को गाय,बकरी,भैंस का दूध कहा जाता है।

पूर्ण दूध में वसा तथा वसाविहीन ठोस की न्यूनतम मात्रा, गाय में 3.5% तथा 8.5% और भैंस में 6% तथा 9%, क्रमशः रखी गई है। (ख) स्टेण्डर्ड दूध- यह दूध जिसमें वसा तथा वसाविहीन ठोस की मात्रा दूध से क्रीम निकाल कर दूध में न्यूनतम वसा 4.5% तथा वसाविहीन ठोस 8.5% रखी जाती है। (ग) टोण्ड दूध- पूर्ण दूध में पानी तथा सप्रेश दूध पाऊडर को मिलाकर टोण्ड दूध प्राप्त किया जाता है जिसकी वसा 3% तथा वसाविहीन ठोस की मात्रा 8.5% निर्धारित की गयी है। (घ) डबल टोण्ड दूध- इस दूध में वसा 1.5% तथा वसाविहीन ठोस 9% निर्धारित रहती है। (ड.) रिक्न्सटिट्यूटेड दूध- जब दूध के पाऊडर को पानी में घोल कर दूध तैयार किया जाता है जिसमें 1 भाग दूध पाऊडर तथा 7 से 8 भाग पानी मिलाते हैं तो उसमें रिकन्सटिट्यूटेड दूध कहते हैं। (च) रिकम्बाइण्ड दूध- यह दूध जो बटर आयल, सप्रेस दूध पाऊडर तथा पानी की निश्चित मात्राओं को मिलाकर तैयार किया जाता है उसे रिकम्बाइण्ड दूध कहते हैं। जिसमें वसा की मात्रा 3% तथा वसाविहीन ठोस की मात्रा 8.5% निर्धारित की गई है। (छ) फिल्ड दूध- जब पूर्ण दूध में से दुग्ध वसा को निकाल कर उसके स्थान पर वनस्पति वसा को मिलाया जाता है उसे फिल्ड दूध कहते हैं। दूध से निम्न खाद्य पदार्थ बनते हैं - खोआ,श्रीखंड,मलाई,मक्खन,घी,दही,योगहर्ट,पनीर,चीज़,रबड़ी,आइस्क्रीम आदि। दुग्ध उत्पादन में भारत विश्व में पहले स्थान पर स्थित है। सत्र 2001 में,विश्व दुग्ध दिवस को संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा वैश्विक भोजन के रूप में दूध के महत्व को पहचानने और हर साल 1 जून को डेयरी क्षेत्र का जश्न मनाने के लिए पेश किया गया था। इसलिए विश्व दुग्ध दिवस 2001 से प्रत्येक वर्ष 1 जून को मनाया जाता है।

इस बार विश्व दुग्ध दिवस की 21 वीं वर्षगांठ है। विश्व दुग्ध दिवस 2021 का थीम/प्रसंग है - "पर्यावरण,पोषण और सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण के साथ-साथ डेयरी क्षेत्र में स्थिरता"('सस्टेनेबिलिटी इन द डेरी सेक्टर अलांग विथ एम्पोवेरिंग द एनवायरनमेंट,न्यूट्रिशन,एंड सोसिओ-इकनोमिक)। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन का उद्देश्य डेयरी के लिए कम कार्बन भविष्य बनाने में मदद करके,दुनिया में डेयरी फार्मिंग को फिर से पेश करना है। यह दिन ( 1 जून ) लोगों का दूध पर ध्यान केंद्रित करने और दूध व डेयरी उद्योग से जुड़ी गतिविधियों को प्रचारित करने का अवसर प्रदान करता है। दूध की महत्वता के माध्यम से विश्व दुग्ध दिवस इस उत्सव के द्वारा बड़ी जनसंख्या पर असर डालता है। इस महामारी में  हल्दी वाले दूध ने लोगों का आत्मविश्वास बढ़ाया है। इस महामारी में  लोगों ने  दूध और हल्दी  का प्रयोग कर अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) को बढ़ाया है। दूध की भारी मांग को पूरा करने के लिए भारत में 1970 के दशक में श्वेत क्रांति जिसे ऑपरेशन फ्लड के रूप में जाना जाता है की शुरुआत हुई थी। इसने भारत को दूध की कमी वाले राष्ट्र से दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादकों में बदल दिया। इतनी अधिक मात्रा में दूध के उत्पादन के लिए उतनी ही संख्या में दुधारू पशुओं का होना भी जरुरी है। पशुओं को बड़ा करने और उनके रख रखाव के लिए बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत होती है। इन पशुओं के खाने के लिए भी भारी मात्रा में अनाज और चारे की जरूरत होती है। उसे पैदा करने के लिए उतनी ही मात्रा में पानी और जमीन की भी जरूरत पड़ती है। जमीन की कमी को पूरा करने के लिए काफी मात्रा में जंगलों का भी सफाया किया जाता है।

जंगल समाप्त होने से कई प्रजातियां विलुप्त होने के कागार पर पहुँच गयी। दुनिया भर में लाखों किसान दूध उत्पादन के लिए लगभग 270 मिलियन डेयरी गायों का उपयोग करते हैं। दूध उत्पादन विभिन्न तरीकों से पर्यावरण को प्रभावित करता है और इन प्रभावों का पैमाना डेयरी किसानों और चारा उत्पादन के तरीकों पर निर्भर करता है। अक्सर इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है कि अगर डेयरी उद्योग से निकलने वाला अपशिष्ट नदी व नालों तक पहुंच जाता है तो यह एक बहुत बड़ा प्रदूषण का कारण हो सकता है। डेयरी गाय और उनकी खाद से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है जो जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान देता है। दुनिया की कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का एक बड़ा हिस्सा, जानवरों के शरीर की गतिविधियों से निकलता है। सवाल ये है कि क्या उनके पेट में पाए जाने वाले बैक्टीरिया में बदलाव कर के हम अपनी धरती को जलवायु परिवर्तन के क़हर से बचा सकते हैं? न्यूज़ीलैंड के फार्मिंग साइंस रिसर्च इंस्टीट्यूट यानी एग्रीसर्च में कुछ गायों को टीके लगाए गए थे। ताकि उनके पेट में मौजूद वो बैक्टीरिया नष्ट हो जाएं,जो मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं। मीथेन,सबसे ख़तरनाक ग्रीनहाउस गैस है। जो कार्बन डाई ऑक्साइड से 25 गुना ज़्यादा गर्मी अपने अंदर क़ैद करती है। एग्रीसर्च का मक़सद था कि वो इस वैक्सीन के अलावा कुछ ऐसे टीके विकसित करे,जो गायों के पेट में मीथेन गैस बनाने वाले बैक्टीरिया का ख़ात्मा करे। लेकिन,उससे डेयरी उत्पाद  खाने वालों को भी नुक़सान न हो| एक मोटे अनुमान के मुताबिक़,दुनिया की कुल ग्रीनहाउस गैसों में से 14 प्रतिशत का उत्सर्जन इन पालतू जानवरों से ही होता है। कार्बन डाई ऑक्साइड के अलावा खेती की वजह से दो और गैसें भारी मात्रा में निकलती हैं।

ये हैं नाइट्रस ऑक्साइड,जो खेतों में उर्वरक के इस्तेमाल से पैदा होती है और मीथेन। मीथेन गैस अक्सर भेड़ों और दूसरे पालतू जानवरों के पेट में बनती है। फिर जानवर उसे वातावरण में छोड़ते हैं। जुगाली करने वाला एक जानवर दिन भर में औसतन 250-500 लीटर तक मीथेन गैस छोड़ता है। एक आकलन है कि जानवर डकार और हवा छोड़ते हुए इतनी मीथेन गैस छोड़ते हैं,जो 3.1 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर नुक़सान करती है। पालतू जानवरों के पेट में बड़ी तादाद में कीटाणु पलते हैं। लेकिन,इन में से केवल तीन फ़ीसद ही ऐसे होते हैं,जो मीथेन गैस के उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। ये बैक्टीरिया,जानवरों की आँतों के पहले हिस्से में रहते हैं,जिन्हें रूमेन कहते हैं। ये प्राचीन काल में धरती पर पैदा हुए आर्किया नाम के कीटाणुओं के वंशज हैं। ये बिना ऑक्सीजन वाले माहौल में जीवित रह सकते हैं। ये जानवरों के चारे का फर्मेंटेशन कर के उस पर अपना बसर करते हैं। लेकिन,इस प्रक्रिया में मीथेन गैस निकलती है। इस गैस के दबाव की वजह से ही जानवरों में डकार निकलती है,या हवा खुलती है। इन बैक्टीरिया की 12 से 15 नस्लों का पता चला है,जो जानवरों में मीथेन गैस के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार हैं। इन कीटाणुओं का ख़ात्मा करने के लिए जानवरों को इंजेक्शन के ज़रिए वैक्सीन दी जाती है।

इससे उनके शरीर से वो केमिकल निकलते हैं,जो इन बैक्टीरिया के ख़िलाफ़ माहौल तैयार करते हैं। ताकि वो मर जाएं। अब तक कुछ गिने चुने जानवरों जिन मे भेड़ें और गायें शामिल हैं,को ये वैक्सीन दी गई थी। इसे तैयार करने के लिए जो एंटीबॉडी चाहिए,उसे वैज्ञानिक जानवरों की लार और पेट से निकालते हैं। अब जिन जानवरों को टीका लगाया गया है। टीका लगने के बाद से गायें या भेड़ों ने मीथेन गैस छोड़ना कम कर दिया है। लेकिन,एग्रीसर्च  के वैज्ञानिकों को अपने मक़सद में कामयाबी मिली। क्योंकि उन्होंने टीका बैक्टीरिया के जीनोम को बनाकर तैयार किया था। जानवरों को ऐसा चारा खिलाया जाए, जो उनके पेट में मौजूद आर्किया नस्ल के बैक्टीरिया के लिए मुफ़ीद न हो। ब्रिटेन की नॉटिंघम यूनिवर्सिटी के फिल गार्न्सवर्थी इस बात से इत्तिफ़ाक़ रखते हैं। वो कहते हैं कि जानवरों का खान-पान बदल कर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 20-25 प्रतिशत की कमी की जा सकती है। गायों का खाना बदलकर दुनिया की कुल ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 15 प्रतिशत तक की कमी लाई जा सकती है|केवल मक्के के चारे को कम  इस्तेमाल कर के ही मीथेन का उत्सर्जन 10 प्रतिशत कम किया जा सकता है। पालतू जानवर जितना रेशेदार चारा खाएंगे,उतनी ही मीथेन गैस छोड़ेंगे। जानवरों के खाने में समुद्री घास शामिल करके मीथेन गैस का उत्सर्जन कम किया जा सकता है।

टेक्सस की एऐंडएम यूनिवर्सिटी की एलिज़ाबेथ लैथम जानवरों को प्रोबायोटिक खिलाने की सलाह देती हैं,जिससे मीथेन गैस के उत्सर्जन में 50 प्रतिशत की कमी लाई जा सकती है। लेकिन,इन्हें जानवरों को रोज़ाना देना होगा। केवल घास पर निर्भर जानवरों को रोज़ ऐसा खाना देना मुश्किल है। वैज्ञानिक बताते हैं की ऐसे शोध से अब तक उन्हें इस बात के संकेत नहीं मिले हैं,जो दूध की गुणवत्ता पर असर डालने वाले हों। कहने का तात्पर्य दूध देने वाले जानवरों से होने वाले पर्यावरण क्षति को मानव बचाने में सहायक हुआ है। मानव का पर्यावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्वस्थ मानव ही पर्यावरण की देखभाल कर सकता है। पोषित मानव ही पर्यावरण को संरक्षित करने में अहम् भूमिका निभाता है। मानव को पोषित रखने में दूध एक सम्पूर्ण आहार है। अतएव हम कह सकते है दूध हमारे पर्यावरण को सुदृढ़ करने सहायक साबित होता है। दूध के उत्पादन को बढ़ाने के लिए डेरी प्रोसेसिंग यूनिट/प्लांट को बढ़ाना होगा। डेरी प्लांट के ज्यादा  संख्या में खुलने से दूध सप्लायर की मांग बढ़ेगी। ज्यादातर दूध सप्लायर गाँव से आते हैं ऐसे में एक ओर गाँव में रोजगार बढ़ेगा तो वहीँ  शहरों में लगे डेरी प्लांट में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। ताजे दूध के उत्पादन में से लगभग 60 फीसदी की खपत मिठाई की दुकानों में होती है। देखा जाए तो दूध का सम्बन्ध स्वास्थ्य/पोषण के साथ-साथ पर्यावरण और आर्थिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। दूध का उत्पादन बढ़ेगा तो रोजगार बढ़ेगा। रोजगार बढ़ेगा तो लोग समृद्ध होंगे। समृद्धि होंगे तो वो पोषित होंगे। असमृद्ध लोग कुपोषित होते हैं। पोषण अच्छे स्वास्थ्य की जननी है। अतएव हम कह सकते हैं कि पर्यावरण,पोषण और सामाजिक शसक्तीकरण को ध्यान में रखते हुए दुग्ध उत्पादन को बढ़ाने की जरुरत है। विश्व में दुग्ध क्षेत्र (डेयरी सेक्टर) के सतत विकास में डेरी फार्मिंग (गोशाला) राम बाण साबित हो रही है।

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