मथुरा: मथुरा स्थित श्रीकृष्ण जन्मभूमि और शाही ईदगाह मस्जिद से जुड़ा विवाद एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सुनवाई के लिए तैयार है। 15 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई होगी। यह सुनवाई मस्जिद प्रबंधन समिति की याचिका पर हो रही है, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी गई है, जिसमें मस्जिद के धार्मिक चरित्र की जांच करने की अनुमति दी गई थी।
उल्लेखनीय है कि, यह विवाद मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पास स्थित शाही ईदगाह मस्जिद को लेकर है। हिंदू पक्ष का दावा है कि यह मस्जिद भगवान कृष्ण के जन्मस्थान पर बने मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। जबकि मुस्लिम पक्ष इस दावे को खारिज करते हुए कहता है कि मस्जिद निर्माण में किसी हिंदू मंदिर को नुकसान नहीं पहुंचाया गया। हालांकि, सवाल यह उठता है कि यदि मस्जिद के निर्माण को लेकर मुस्लिम पक्ष के दावे सही हैं, तो मस्जिद का धार्मिक चरित्र जांचने से डर क्यों? इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए मस्जिद के धार्मिक चरित्र का पता लगाने की आवश्यकता पर जोर दिया था और मस्जिद प्रबंधन समिति की याचिका को खारिज कर दिया था।
1 अगस्त 2023 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने मस्जिद प्रबंधन समिति की याचिका खारिज कर दी थी। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि शाही ईदगाह के धार्मिक चरित्र की जांच करना आवश्यक है, ताकि ऐतिहासिक तथ्यों और सच्चाई को सामने लाया जा सके। इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले को चुनौती देते हुए मुस्लिम पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की है। उनका कहना है कि मस्जिद के धार्मिक चरित्र की जांच करना, कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 का उल्लंघन होगा। इस कानून के अनुसार, 15 अगस्त 1947 को भारत में जितने भी पूजा स्थल थे, उनका धार्मिक स्वरूप उसी समय के अनुसार संरक्षित रहेगा। यानी हिन्दू अपने उन प्राचीन मंदिरों पर दावा नहीं कर सकते, जो मुगलकाल में विकृत करके मस्जिद में तब्दील कर दिए गए, अब वे मस्जिद ही रहेंगे।
मुस्लिम पक्ष ने तर्क दिया है कि यह मस्जिद 17वीं सदी में बनाई गई थी और इसका धार्मिक स्वरूप बदलने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि यह विवाद 1991 के कानून के दायरे में आता है और सर्वे या जांच करने की आवश्यकता नहीं है। हिंदू पक्ष ने मस्जिद प्रबंधन समिति की याचिका को खारिज करने की मांग करते हुए कहा है कि सर्वे और जांच के माध्यम से सच्चाई को उजागर करना आवश्यक है। हिंदू पक्ष के वकील वरुण सिन्हा ने कहा, “जो चीज़ जिसकी है, उसे वही मिलनी चाहिए, चाहे इसमें कितने ही साल क्यों न लग जाएं। अगर मस्जिद वाकई मंदिर तोड़कर नहीं बनाई गई है, तो मुस्लिम पक्ष को सर्वे और जांच से डरने की कोई जरूरत नहीं है।”
मुस्लिम पक्ष लगातार पूजा स्थल अधिनियम 1991 का हवाला दे रहा है, लेकिन हिंदू पक्ष का कहना है कि न्याय का तकाजा है कि जिस स्थान का ऐतिहासिक सत्य क्या है, इसे पता लगाया जाए। हिंदू पक्ष ने स्पष्ट किया कि यदि जांच के बाद यह प्रमाणित हो जाता है कि मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गई, तो वे अदालत के फैसले को स्वीकार करेंगे।
इस मामले में एक और बड़ा सवाल खड़ा होता है—क्या 1991 का कानून, न्याय सुनिश्चित करता है या कब्जे की मानसिकता को बढ़ावा देता है? हिंदू पक्ष का कहना है कि कानून को न्याय के मूलभूत सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। कब्जे वाली विचारधारा यह कहती है कि जहां अब मस्जिद है, वह हमेशा मस्जिद ही रहेगी, लेकिन न्याय कहता है कि जो चीज़ जिसकी है, उसे लौटाना चाहिए।
अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या रुख अपनाता है। क्या अदालत धार्मिक चरित्र की जांच की अनुमति देती है, या पूजा स्थल कानून के तहत मस्जिद प्रबंधन समिति की याचिका को सही ठहराती है। यह मामला केवल एक भूमि विवाद नहीं, बल्कि न्याय और ऐतिहासिक सत्य की खोज का प्रतीक बन चुका है। 15 जनवरी की सुनवाई न केवल कानूनी दृष्टिकोण से, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी निर्णायक साबित हो सकती है।