जिन्दा जल गई, पर अंग्रेज़ों के सामने झुकी नहीं, नाना साहेब की बेटी मैना

जिन्दा जल गई, पर अंग्रेज़ों के सामने झुकी नहीं, नाना साहेब की बेटी मैना
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नई दिल्ली: यह कहानी 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की है, जब भारत की धरती पर गुलामी की बेड़ियों के खिलाफ पहली बार विद्रोह का ज्वालामुखी फूटा था। इस संघर्ष में जहां वीर पुरुषों ने अपने प्राणों की आहुति दी, वहीं एक मासूम बच्ची का बलिदान भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है—एक ऐसा बलिदान जो समय के साथ धुंधला गया, लेकिन जिसकी चमक कभी कम नहीं होगी।  मैना, नाना साहब पेशवा की दत्तक पुत्री, सिर्फ 13 साल की थी। उम्र तो उसकी खेलने-कूदने की थी, लेकिन हालात ने उसे कच्ची उम्र में ही एक साहसी योद्धा बना दिया था। जब अंग्रेजों की सेना ने भारतीय सेनानियों पर हावी होना शुरू किया, तो नाना साहब को अपना बिठूर का महल छोड़ने का निर्णय लेना पड़ा। उन्होंने सोचा कि कहीं सुरक्षित स्थान पर जाकर पुनः सेना संगठित करेंगे और फिर से अंग्रेजों से लोहा लेंगे। लेकिन इस कठिन समय में, उन्हें सबसे बड़ा डर था अपनी प्यारी बेटी मैना के भविष्य का।

नाना साहब ने मैना को समझाने की कोशिश की कि साथ चलना सुरक्षित नहीं है, मार्ग में कई कठिनाइयाँ आएंगी, लेकिन यहाँ छोड़ा भी नहीं जा सकता,, आखिर वह एक लड़की है—उसके साथ कुछ भी अनर्थ हो सकता है। लेकिन मैना ने जो जवाब दिया, वह किसी भी पिता का कलेजा चीर देने वाला था। उसने कहा, "पिताजी, मैं सिर्फ आपकी बेटी नहीं हूँ, मैं इस धरती की ललना भी हूँ। मुझे अपने शरीर की रक्षा करना आता है, और मैं इसे आखिरी सांस तक करूँगी। आप निश्चिंत होकर जाएं, मैं यहीं रहूँगी।" इस नन्हीं सी बच्ची का साहस देखकर नाना साहब की आंखों में आँसू आ गए, लेकिन वह मजबूर थे। कुछ विश्वस्त सैनिकों को उसके साथ छोड़कर नाना साहब महल छोड़कर चले गए। लेकिन नियति ने शायद मैना के लिए कुछ और ही सोच रखा था। कुछ दिन बाद, अंग्रेज सेनापति हे ने गुप्तचरों से सूचना पाकर महल पर हमला बोल दिया। तोपों की गर्जना ने महल की दीवारों को थर्रा दिया, लेकिन मैना डरी नहीं। उसने सेनापति को रोकने की कोशिश की, लेकिन उसके प्रयास विफल रहे।

आखिरकार, मैना को पकड़ लिया गया और जनरल आउटरम के सामने पेश किया गया। आउटरम ने सोचा कि यह छोटी सी बच्ची डरकर सब कुछ बता देगी, लेकिन वह गलत था। मैना की आँखों में डर नहीं, बल्कि एक अटल संकल्प की चमक थी। आउटरम ने उसे जिन्दा जला देने की धमकी दी, लेकिन मैना की चुप्पी ने उसके इरादों को और भी पक्का कर दिया। उसने मैना को पेड़ से बांधकर जलाने का आदेश दे दिया। और फिर, 3 सितम्बर 1857 की उस काली रात में, जब हर कोई सो रहा था, मैना ने अपने देश के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी। जलती हुई लपटों में घिरी वह मासूम, अपने दर्द को सहते हुए भी, अपनी मातृभूमि के लिए हंसते-हंसते कुर्बान हो गई। उसके शारीरिक घावों से निकली चीखें उस अंधेरी रात में गूंज रही थीं, लेकिन उसकी आत्मा गर्व से आसमान में उठ रही थी।

आज जब हम अपने देश की आजादी का जश्न मनाते हैं, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता की नींव में मैना जैसी वीरांगनाओं का खून शामिल है। उसकी कहानी को याद करके हमारी आँखों में आँसू आते हैं, लेकिन यह आँसू सिर्फ दुख के नहीं, बल्कि गर्व और कृतज्ञता के भी हैं। मैना, उस 13 वर्षीय बच्ची का नाम, जिसे इतिहास ने भुला दिया, लेकिन जिसने अपने बलिदान से एक ऐसी कहानी लिखी, जिसे कोई समय की धूल नहीं मिटा सकती। ऐसी वीरांगना के चरणों में हमारा शत-शत नमन।

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