15 से 21 नवम्बर तक हमारे देश में नवजात शिशु सप्ताह मनाया जा रहा हैं | और इस सप्ताह मैने टीवी पर एक वीडियो देखा, जिसमे एक थैली के अन्दर लिपटा हुआ एक नवजात बच्चा मिला | एक मासूम जिसकी ठीक से आँखे भी नहीं खुली थी नाल भी नही कटी थी,उसके मुह में, नाक में, गटर का पानी भर चूका था | फिर भी वो इस बेरहम दुनिया को देखने के लिए अपनी साँसों को थामे था | ये कोई पहली घटना नहीं हैं, इससे पहले भी कचरा पटियों, झाड़ियो, नालियों, सड़को,ट्रेन के डिब्बो जैसी जगहों पर जिन्दा नवजात, एक जिन्दा लाश की तरह रोते हुए मिले हैं. शायद उन बेरहमो को, याद कर रहे थे जिन्होंने पैदा तो किया मगर छाती से लगाने, नज़र उतरने के बजाये उन्हें ही फैक दिया |
कुछ बदनसीब ऐसे होते हैं जो पैदा होकर शायद इसीलिए फैक दिए जाते हैं.कि लाल चीटियों, भूखे कुत्तो,सूअर और बिल्लियों की भूख मिटा सके या यु बोल लीजिये की माँ के आंचल के आभाव में दम तोड़ देते हैं और भोजन श्रंखला का अहार बन जाते हैं, और एक इनसे भी भयानक हालत में होते हैं,जो जिन्दा रहते है और जब तक मर ना जाये जानवर नोचते रहते हैं | और ये सब देखा कर, मुझे अपने इंसान होने पर शर्म आती हैं.कि किस युग में जी रहा हु जहां संवेदना का नामो निशान तक नही हैं, कैसी होगी वो माँ जो पेट काटकर, औलाद को जन्म तो दे देती हैं.पर अगले ही पल उसे फैक भी देती हैं | पर तभी पौराणिक इतिहास याद आ गया जहां विश्वामित्र जैसे तपस्वी की 60000 वर्ष के हठ योग को अपने यौवन से भंग कर, उन्हें गृहस्त बनने वाली मेनका ने, विश्वामित्र के संबंध से उत्पन्न कन्या को जंगल में छोड़ दिया था जहां,शकुन्तक नामक पक्षी द्वारा उस नवजात के जीवन की रक्षा की जाती हैं, यही कन्या, शकुन्तला के नाम से विख्यात हुई |
द्वापर युग में राजकुमारी कुंती को सूर्यदेव की कृपा से पुत्र की प्राप्ति होती हैं लेकिन ट्विस्ट ये हैं कि कुंती को पुत्र शादी से पहले ही हो गया था इसलिए लोकलाज के डर से उन्होंने इस पुत्र को चुपचाप नदी में बहा दिया यही बालक, महायोद्धा कर्ण के नाम से महाभारत युद्ध में विख्यात हुआ | तो जब त्रेता,द्वापर जैसे युगों में ऐसी मानसिकता थी तो हम तो घोर कलयुग में जी रहे हैं, ये सोचा, तब थोड़ी शर्मिंदगी कम हुई | बचीकुची शर्मिंदगी 29 सितम्बर 2017 को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के प्रकाशित एक पत्र से चली गई जो भारत में शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में उल्लेखनीय कमी के शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ था इसमें सरकार ने अपनी पीठ थपथपाते हुए बड़ी शान से बताया कि वर्ष 2015 की तुलना में वर्ष 2016 के दौरान भारत में 90,000 कम नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई। वर्ष 2015 में 9.3 लाख नवजात शिशुओं की मृत्यु होने का अनुमान है, जबकि वर्ष 2016 में 8.4 लाख नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई थी। क्या बात है केवल 8 लाख नवजात ही मरे देश में | ये ख़ुशी की बात हैं और इसका फायदा सरकार को गुजरात चुनाव में मिलना ही चाहिए | अब इसके दो ही कारण हो सकते हैं. या तो सरकार देश के भविष्य को लेकर बेहद संवेदनशील हैं जिससे इनमे कमी आई या नोट बंदी और GST की तैयारी में सरकार इतनी व्यस्त थी कि पूरा सर्वेक्षण नही कर पाई इसलिए आकड़ो में कमी दिख रही हैं. वैसे ये सच है की स्वास्थ्य कल्याण बज़ट मोदीराज में बढ़ा हैं , रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य विभाग का बजट
2011-12-- 2 हजार 639 करोड़,
2015-16-- 4 हजार 740 करोड़,
2016-17-- 5 हजार 643 करोड़ रहा |
साथ ही साथ नवजात शिशु एवं बाल आहार प्रथाओं को अधिकतम बढ़ावा देने के लिए मंत्रालय ने “मां- मां की असीम ममता” कार्यक्रम शुरू किया है, ताकि देश में स्तनपान का दायरा बढ़ाया जा सके। मां कार्यक्रम के अंतर्गत स्तनपान को बढ़ावा देने के लिए जिला और ब्लॉक स्तर पर कार्यक्रम प्रबंधकों सहित डॉक्टरों, नर्सों और एएनएम के साथ करीब 3.7 लाख आशा और करीब 82,000 स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को संवेदनशील बनाया गया है और 23,000 से ज्यादा स्वास्थ्य सुविधा कर्मचारियों को आईबाईसीएफ प्रशिक्षण दिया गया है। साथ ही उपयुक्त स्तनपान परंपराओं के महत्व के संबंध में माताओं को संवेदनशील बनाने के लिए ग्रामीण स्तरों पर आशा द्वारा 1.49 लाख से अधिक माताओं की बैठकें आयोजित की जा चुकी हैं।
पर ये भी सच हैं. कि इन सब के बावजूद हर रोज़,हर अखबार में एक ना एक नवजात अपनी लावारिस जिंदगी या मौत के साथ दिख ही जाता हैं. तो आख़िर कमी कहाँ हैं ? इनके कारणों कि विवेचना पर ये बिंदु सामने आये |
भौगोलिक स्तर पर दूर-दराज़ के इलाके या आदिवासी,पहाड़ी क्षेत्रो जहां स्वास्थ्य सेवाएँ आसानी से उपलब्ध नही हो पाती वहाँ स्वास्थ्यकर्मी, चिकित्सक,एम्बुलेंस इत्यादि की तत्काल सेवा नही मिल पाती है वहाँ भी नवजात मृत्यु दर बढ़ती हैं|
स्वास्थ्य के नज़रिए से देखे तो समय पूर्व प्रसव या कमजोर मातृत्व , या फिर बच्चे के जन्म के बाद स्तनपान में त्रुटी,या फिर बीमारियाँ, या कई बार शिशु इतना कमजोर जन्म लेता हैं कि, उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता इतनी नही होती कि वो वातावरण से मुकाबला नही कर सके | तब नवजात म्रत्यु दर बढ़ती हैं |
आर्थिक कारणों का विश्लेषण करे तो माँ की सही खुरांक का आभाव,गरीबी,मुलभूत सुविधाओ कि कमी,नवजात के लिए समस्त आवश्यक संसाधनों कि व्यवस्था ना हो पाना. ये सभी ऐसी समस्याएं बाल मौत का कारण बनती हैं |
और एक समस्या,जो इनसब से ज्यादा भयानक है वो हैं मानसिकता की समस्या, बेटे की चाह में जब बेटी पैदा हो जाती हैं. तो वो किसी गटर में पहुच जाती हैं | कठोर कानून के बावजूद आज भी बलात्कार की शिकार कई मासूम, बदनामी के डर से चुप रह जाती है और गर्भवती हो जाती हैं. और जिसका परिणाम किसी मासूम किलकारी को चुकाना पड़ता हैं| केवल ही दुराचार ही नही प्रेम-प्रसंग, महानगरो का लिव इन रिलेशनशिप भी नवजात के साथ अन्याय का कारण बन जाती हैं |
इस मामले में सरकार पर पूरा दोषारोपण करना भी गलत हैं. क्यों की सरकार आर्थिक,स्वास्थ्य और भौगोलिक परिस्थितियो पर कार्ययोजना बना सकती है, लेकिन मानसिकता को बदलना किसी योजना से संभव नही हैं. कुछ वर्षो पूर्व उदयपुर के फ़तेह सागर झील में मिले कई सारे कन्या भ्रूण हमारे मानसिकता को ही तो दर्शाते हैं. और इसी सोच को बदलना जरुरी हैं.इतना तो हमे सोचना ही होगा की कारण चाहे जो भी हो पर जन्म लेने वाले को सुरक्षा,सम्मान और अधिकार के साथ जीने का हक हैं |
सरकारे भी महानगरो से लेकर अंदरूनी ग्रामीण,दूरस्थ,पिछड़े,आदिवासी,जनजातीय क्षेत्रो में जागरूकता कैंप, कार्यक्रम, योजनाये ना केवल चलाये जाये बल्कि समय-समय पर जिम्मेदार इनका मूल्यांकन भी करे अधिकारी रिपोर्ट के बजाये जमीनी स्तर पर जाकर स्वयं अध्ययन करे,बात करे | तब जाकर सही मायनों में ये नवजात शिशु सप्ताह अपने वास्तिवक उद्देशो को प्राप्त कर सकेगा |
फिर भी वर्तमान हालत को देखते हुए एक सवाल आपके मस्तक पटल पर छोड़े जा रहा जा हूँ कि क्या बजट,योजना और सप्ताह मना लेने से नवजातो पर हो रहे अत्याचार बंद हो जायेंगे ?