AMU में दलितों-पिछड़ों को आरक्षण नहीं, क्योंकि वो मुस्लिम संस्थान..! क्या सुप्रीम कोर्ट में समाधान?

AMU में दलितों-पिछड़ों को आरक्षण नहीं, क्योंकि वो मुस्लिम संस्थान..! क्या सुप्रीम कोर्ट में समाधान?
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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा कि फिलहाल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) को अल्पसंख्यक संस्थान माना जाएगा। ये फैसला CJI चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 7 जजों की बेंच ने दिया है, लेकिन 3 जजों ने इस पर असहमति जता दी है। इस तरह से ये एक खंडित फैसला हो गया। अब इस मुद्दे पर अंतिम निर्णय के लिए अब तीन जजों की बेंच पर सुनवाई का जिम्मा छोड़ा गया है, जो इसके अल्पसंख्यक दर्जे पर अंतिम निर्णय लेगी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के अनुसार, AMU में पहले से लागू आरक्षण व्यवस्था ही फिलहाल बरकरार रहेगी। यानी, दलितों-पिछड़ों को कोई आरक्षण नहीं मिलेगा, सारी सुविधाएं सिर्फ मुस्लिमों की होगी।

उल्लेखनीय है कि, AMU के अल्पसंख्यक दर्जे का मुद्दा 1965 से विवाद का कारण रहा है, जब केंद्र सरकार ने इस विश्वविद्यालय की स्वायत्तता को सीमित कर दिया था। इसके बाद, अजीज बाशा नामक एक व्यक्ति ने 1967 में सरकार के इस कदम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। उस समय, सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की बेंच ने फैसला सुनाया था कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। हालांकि, इस मामले में AMU एक पक्ष नहीं था। इसके बाद 1981 में इंदिरा गांधी सरकार ने AMU एक्ट में संशोधन करके इसे मुस्लिमों द्वारा स्थापित संस्थान मानते हुए एक तरह से इसका अल्पसंख्यक दर्जा पुनः स्वीकार लिया।

हालांकि, 2006 में जब AMU के जेएन मेडिकल कॉलेज ने एमडी और एमएस पाठ्यक्रमों में 50 प्रतिशत सीटों को मुस्लिमों के लिए आरक्षित किया, तब यह मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुंचा, जिसने फैसला दिया कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता। इसके बाद AMU ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जो अभी तक लंबित है।

अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में, AMU में अनुसूचित जाति (SC) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के छात्रों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता। यही स्थिति जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में भी है। इसे देखते हुए यह सवाल उठता है कि मुस्लिम बहुल संस्थानों में दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण क्यों नहीं है? इसी प्रकार, जब कश्मीर में अनुच्छेद 370 लागू था, तब दलितों को वहां वोट देने का अधिकार नहीं था, आरक्षण नहीं था और उन्हें केवल सफाईकर्मियों की नौकरियों तक ही सीमित रखा गया था। अनुच्छेद 370 हटने के बाद ही वहाँ दलितों के अधिकारों को मान्यता मिली।

इन तथ्यों से मीम-भीम (मुस्लिम-दलित) एकता पर सवाल खड़े होते हैं। यदि मुस्लिम समुदाय वास्तव में दलितों के हितैषी हैं, तो फिर वे अल्पसंख्यक संस्थानों में आरक्षण का विरोध क्यों करते हैं और अनुच्छेद 370 की वापसी की वकालत क्यों करते हैं, जो कि दलितों के अधिकारों को सीमित करता था? इससे ऐसा प्रतीत होता है कि दलित-मुस्लिम एकता का विचार केवल दलितों को अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करने का प्रयास हो सकता है, ताकि उनके वोट लेकर सत्ता तक पहुंचा जा सके।

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