देहरादून: उत्तर प्रदेश एवं बिहार की भांति अब उत्तराखंड में भी 'का बा' का शोर मच रहा है। चुनावी समर में उम्मीदवार वोट मांगने कई स्थानों पर घूम रहे हैं। टिकट न प्राप्त होने पर दल बदल हो रहा है। चुनावी रैलियां चल रही हैं। नेतागण एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं। ऐसे में कवि भी अपनी रचनाओं के जरिए तंज कस रहे हैं। वे अपनी कविताओं के जरिए दल-बदल, क्षेत्रवाद, जातिवाद तथा चुनावों में रुपयों के असर को उजागर इन कुरीतियों पर चोट कर रहे हैं। कुछ ऐसी कविताओं की पंक्ति पाठकों के सामने रखी जा रही हैं। इससे पहले उत्तर प्रदेश एवं बिहार की सियासत भी 'का बा' से गरमाई थी।
उत्तराखंड में का बा:-
हरिद्वार के सत्यदेव सोनी 'सत्य' की लिखी कविता जमकर सुर्खियां बटोर रही है। उत्तराखंड की सियासी हलचल को देखते हुए यह रचना व्यक्तियों को रोचक लग रही है।
बदरी केदार बा गंगा के धार बा।
उत्तराखंड देवभूमि यहीं हरिद्वार बा।
धाम यहां चार बा, पुण्य भूमि सार बा।
तीरथ त्रिवेंद्र यहां, धामी सरकार बा।
टिहरी गढ़वाल बा, झील नैनी ताल बा।
मसूरी में मेला लागे, यहां हर साल बा।
सीधे साधे लोग बा, छप्पन हैं भोग बा।
रामदेव कर रहे, बैठे हुए योग बा।
मनसा मां चंडी बा, नागा साधु दंडी बा।
महाकुंभ नगरी ये, रहती अखंडी बा।
नीलकंठ भोला बा, सीधा साधा चोला बा।
अद्भुत ऋषिकेश, देख मन डोला बा।
हिमगिरि का माथ बा। गोमुख का साथ बा।
जीवन संवार रही, जल औषधि हाथ बा।
आदर सत्कार बा। प्रकृति के दुलार बा।
सबसे हो निश्छल, उत्तराखंड के प्यार बा।
कवि देवेंद्र उनियाल ने अपनी रचना ‘गौं गोला खोला बदलगिन, झंडा डंडा झोला बदलगिन, जीत हार झणी कैकी कोली, खोफरों मा टोपला बदल गिन, तराजू का तोल बदल गिन, घड़ी-घड़ी एग्जिट पोल बदल गिन’ (गांव-गलियां, तोक बदल गए हैं, झंडे-डंडे- झोले बदल गए हैं, जीत हार न जाने किसकी होगी, सिर की टोपियां बदल गई हैं, तराजू के तोल बदल गए हैं, घड़ी-घड़ी में एग्जिट पोल के नतीजे बदल जा रहे हैं। आदि पंक्तियों से निशाना साधा है।
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