नई दिल्ली: हिंदू काल में इतिहास में दंडधारी शब्द का उल्लेख देखने को मिलता है. भारतवर्ष में पुलिस शासन के विकासक्रम में उस समय के दंडधारी को वर्तमान समय के पुलिस जन के समकक्ष कहा जा सकता है. प्राचीन भारत का स्थानीय शासन मुख्यत: ग्रामीण पंचायतों पर आधारित था. गाँव के न्याय एवं शासन संबंधी कार्य ग्रामिक नामी एक अधिकारी द्वारा संचलित कर दिए जा चुकी. जिसकी मदद और निर्देशन ग्राम के वयोवृद्ध करते थे. यह ग्रामिक राज्य के वेतनभोगी अधिकारी नहीं होते थे और इन्हें ग्राम के व्यक्ति अपने आप में से चुन लिया करते थे. ग्रामिकों के ऊपर 5-10 गाँवों की व्यवस्था के लिए "गोप" एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए "स्थानिक" नामक अधिकारी बनाए जाते है. प्राचीन यूनानी इतिहासवेतताओं ने दर्ज है कि इन निर्वाचित ग्रामीण अधिकारियों द्वारा अपराधों की रोकथाम का काम सुचारु रूप से होता था और उनके संरक्षण में जनता अपने व्यापार उद्योग-निर्भय होकर कर रहे है.
158 साल की हुई हमारी पुलिस: क्या आप जानते है की आज हमारी पुलिस को 158 वर्ष पूरे हो गए है, तो चलिए जानते है कि किस तरह से हुई थी पुलिस की स्थापना... वर्ष 1858 में दिल्ली पर पूरी तरह कब्जे के बाद अंग्रेजों को कानून बनाने में तकरीबन तीन साल लग गए. 1861 में यह कानून बना और नाम दिया गया ताज-ए-रात-ए हिंद यानी इंडियन पीनल कोड(आईपीसी) अंग्रेजों ने आईपीसी बनाने के साथ ही दिल्ली में पांच थाने बनाये.
जंहा इस बारें में कहा गया हैकोतवाली, सदर बाजार, सब्जीमंडी, महरौल और मुंडका इस सिस्टम के तहत पहली एफआईआर 18 अक्टूबर 1861 में सब्जीमंडी थाने में दर्ज हुई. जो कि कटरा शीशमहल निवासी मयुद्दीन पुत्र मुहम्मद यार खान ने दर्ज कराई. जिसके मुताबिक 17 अक्टूबर को इनके घर से तीन डेगचे, तीन डेगची, एक कटोरा, एक हुक्का और औरतों के 45 आने की कीमत के कपडे चोरी हो गये थे.
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