दुनियाभर में कई पौराणिक कथाए और कहनियाँ है. ऐसे में एक कथा के अनुसार परशुराम ने अपने गुरु महादेव शिव से युद्ध किया था और भगवान शिव द्वारा दिए गए फरसे से उन्हें ही चोट पहुंचाई थी. आइए बताते हैं आपको इसके पीछे का रहस्य.
कथा - परशुराम जी ने हैहयवंशी क्षत्रियो का वध किया था यह कथा तो सर्वविदित ही है, समंतपंचका में परशुराम जी ने अंतिम युद्ध लड़ा था. यही पर परशुराम जी ने हजारो क्षत्रियो का वध किया था तथा उनके खून से पांच तालाब भर दिए थे. तथा इसके बाद परशुराम जी ने अपना रक्तरंजित परशु धोया एवं शस्त्र नीचे रखे थे. संहार और हिंसा से वे थक चुके थे. परशुराम ने 21 बार अभियान चला कर धरती के अधिकांश राजाओ को जीत लिया था, बहुत से राजाओ ने उनसे भयभीत होकर उनकी शरण ले ली थी. कुछ ने रनिवासों में छुपकर जान बचाई थी कुछ राजाओ ने ब्राह्मणो से आश्रय लिया था तथा उनकी कुटिया में छुपकर अपनी जान बचाई थी. पृथ्वी के सातो द्वीपों पर अब परशुराम का एकछत्र राज था. एक तरह से पूरी पृथ्वी क्षत्रियो से वहीं हो चुकी थी. परशुराम के सभी उद्देश्य पुरे हो चुके थे.
भूमण्डल के सभी राज्यों को जीत जाने के कारण उन्हें अश्व्मेध्य यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त हो चुका था . ऐसे में परशुराम ने पितरो को दिए अपने वचन को पूरा करने की सोची. खून से भरे तालाबों से निकलकर परशुराम ने अपने पितरो को अपने शत्रुओ के रक्त का अध्र्य दिया तो उनके पूर्वज उनके सामन उपस्थित हो गए. उन्होंने परशुराम जी की वीरता के सराहना करते हुए कहा की इतना क्रोध और हिंसा ठीक नहीं. पितरो ने परशुराम को आदेश दिया की तुम अपने इस कार्य का प्रयाश्चित करो. पहले इसका यज्ञ समापन करो, दान दो फिर तीर्थ यात्रा के बाद तप करो. परशुराम जी को यह भली भाति याद था.
परशुराम ने सबसे पहले विश्वविजेता तथा फिर अश्वमेध्य यज्ञ करने की ठानी. विश्वविजेता यज्ञ सम्पन्न कराया फिर इसके बाद सबसे बड़े यज्ञ अश्वमेध्य की तैयारी करी. समूचे धरती के स्वामी का यज्ञ था तो इसे विशाल स्तर पर होना था. यज्ञ सभी ऋषि मुनि तथा छोटे छोटे राजा आये. यज्ञ के मुख्य अतिथि ऋषि कश्यप थे. यज्ञ के सम्पन्न होने के बाद अब दक्षिणा देने की बारी थी. परशुराम ने यज्ञ पूरा होने के बाद सबसे पहले ऋषि कश्यप से पूछ की उन्हें दक्षिणा में क्या चाहिए. ऋषि कश्यप चाहते थे की परशुराम युद्ध से दूर रहे . उन्हें भय था की बचे-खुचे क्षत्रप पुनः सक्रिय होंगे. यदि उन्होंने फिर से कुछ किया तो परशुराम फिर एक बार रक्तपात को सक्रिय हो जाएंगे. कश्यप ने परशुराम से कहा की मुझे आप के द्वारा जीती हुई सारी धरती चाहिए. परशुराम जी ने सातो द्वीप वाली धरती कश्यप को दान कर दी तथा उनके पितरो की एक आज्ञा और शेष रह गई थी जिसकी पूर्ति के लिए वे तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े. तथा कश्यप के संरक्षण में पृथ्वी जाने से वे बहुत खुस थे.
अब यज्ञ करने वाले शेष ब्राह्मणो को भी दक्षिणा देनी थी. समूची धरती तो कश्यप की हो चुकी थी उनको परशुराम क्या देते. कश्यप मुनि ने इसका समाधान निकाल तथा उन्होंने यज्ञ के लिए सोने से बने वैदिक को कई भागो में तोड़कर उन ब्राह्मण को दान दे दिए. कश्यप ऋषि ने प्रसन्न होकर परशुराम को सिर्फ आशीर्वाद ही नहीं दिया बल्कि भगवान विष्णु का एक अमोघ मन्त्र भी दिया. फिर कश्यप ऋषि परशुराम से बोले की तुमने अब यह पूरी धरती मुझे दान कर दी है. अतः तुम अब इस धरती में एक पल के लिए भी नहीं रह सकते. शीघ्र यहाँ से कहि ओर चले जाओ. इसके बाद वह दक्षिण की ओर चले गए तथा सह्याद्री पर्वत से उन्होंने समुद्र में अपना फरसा फेंककर समुद्र से कहा की समुद्र में जहां तक उनका फरसा गया है वहां तक समुद्र पीछे हटे.
परशुराम की बात मानकर समुद्र ने एक लंबा तटवर्ती क्षेत्र खाली कर दिया. भड़ौच से कन्याकुमारी तक के दान या भेट में प्राप्त समुद्र तटीय क्षेत्रो को शुप्रारक कहा गया. कश्यप ऋषि की आज्ञा थी की एक दिन भी पृथ्वी पर नहीं रहना है अतः परशुराम ने निर्णय कर लिया के दिन में तो वे धरती पर रहेंगे परन्तु रात वे महेंद्र पर्वत पर गुजारेंगे. वे रात होने से पहले ही मन के वेग से महेंद्र पर्वत पर पहुंच जाते थे. इसके साथ एक उन्होंने अपनी अधूरी तीर्थ यात्रा फिर से शुरू करी. यात्रा के समय जब परशुराम एक जगह पर विश्राम के लिए रुके तो उन्हें अपने गुरु भगवान शिव के वचन की याद आने लगी. परशुराम उन दिनों शिव से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे. भगवान शिव अपने शिष्य को परखने के लिए परशुराम की समय-समय पर परीक्षा लिया करते थे. एक दिन शिव ने परशुराम की परीक्षा लेने के लिए निति के विरुद्ध कुछ कार्य करने का आदेश दिया. पहले परशुराम को कुछ संकोच हुआ परन्तु फिर उन्होंने भगवान शिव से साफ़ साफ़ कह दिया की वे वह कार्य नहीं करेंगे जो निति के विरुद्ध हो. वह लड़ने को खड़े हो गए और समझाने बुझाने से भी नहीं माने. महादेव शिव से ही भीड़ गए. भगवान शिव और परशुराम दोनों के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ गया.
परशुराम ने पहले बाणों से शिव पर प्रहार किया जो शिव ने अपने त्रिशूल से काट डाले. अंत में अति क्रोधित परशुराम ने अपने फरसे का प्रयोग किया. परशुराम ने महादेव शिव पर उनके ही दिए फरसे से प्रहार कर दिया. क्योकि शिव को अपने अस्त्र का मान रखना था था उन्होंने उस अस्त्र के प्रहार को अपने ऊपर ले लिया. भगवान शिव के मष्तक पर बहुत गहरी चोट लगी. भगवान शिव के एक नाम खण्डपरशु का यही रहस्य है. भगवान शिव ने परशुराम के फरसे के उस प्रहार का बुरा नहीं माना बल्कि परशुराम को अपने गले से लगा लिया और कहा अन्याय करने वाला चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, धर्मशील व्यक्ति को अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना चाहिए, यह उसका कर्तव्य है.संसार में अधर्म मिटाने से मिटेगा सहने से नहीं. इसके बाद भगवान शिव ने नैतिक उपदेश देते हुए परशुराम से कहा की केवल धर्म, तप, जप, दान, व्रत, उपवास धर्म के लक्षण नहीं है . अन्याय अधर्म से लड़ना भी धर्म साधना का एक हिस्सा है.
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