पटना: साल 2013 में पटना के गाँधी मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हुंकार रैली के दौरान हुए सीरियल बम धमाकों के मामले में, पटना हाई कोर्ट ने निचली अदालत द्वारा चार दोषियों को दी गई फाँसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया है। निचली अदालत ने कुल छह दोषियों को सजा सुनाई थी, जिनमें चार को फाँसी और दो को उम्रकैद की सजा मिली थी। अब हाई कोर्ट ने सभी दोषियों की सजा को उम्रकैद में बदलते हुए कहा कि उनकी उम्र कम है, इसलिए उन्हें फाँसी देने की बजाय जीने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
यह फैसला गंभीर सवाल खड़ा करता है। उन 6 निर्दोष लोगों की उम्र पर क्या अदालत ने गौर किया, जिनकी जान इन बम धमाकों में चली गई? और 89 घायल लोगों की उम्र क्या होगी, और उनका क्या कसूर था? क्या उन मासूमों के जीवन के अधिकार का महत्व कम है? बम धमाकों के दिन, 27 अक्टूबर 2013 को, गाँधी मैदान में नरेंद्र मोदी की रैली के दौरान 6 धमाके हुए थे, जिनमें 6 लोगों की मौत हो गई थी और 89 लोग घायल हुए थे। धमाकों का पहला धमाका पटना जंक्शन के प्लेटफॉर्म नंबर 10 के पास हुआ था, और इसके बाद गाँधी मैदान और उसके आस-पास धमाकों का सिलसिला शुरू हुआ था।
सवाल यह है कि क्या अदालतों के इस तरह के फैसले आतंकवादियों की हिम्मत नहीं बढ़ा रहे हैं? यह देखा गया है कि दुनिया भर में अधिकांश आतंकी हमलों को अंजाम देने वाले युवा होते हैं, क्योंकि उम्रदराज लोग इस तरह के हमलों के लिए उपयुक्त नहीं माने जाते। इस तर्क के अनुसार, हर आतंकी की उम्र कम ही निकलेगी, तो क्या अदालतें उन्हें जीवन का अधिकार देकर सजा में नरमी करती रहेंगी? आतंकी संगठन अक्सर बुजुर्गों को मौलवी या इमाम बना देते हैं, जो युवाओं के दिलों में मजहबी जहर भरते हैं और उन्हें कट्टरपंथी बनाते हैं। अगर अदालतें उम्र को देखकर सजा कम करती रहेंगी, तो क्या यह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को कमजोर नहीं करेगा?
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