शहर में गुजारा मुमकिन नहीं है लेकिन गाँव बचा लेगा उम्मीद यही है

शहर में गुजारा मुमकिन नहीं है लेकिन गाँव बचा लेगा उम्मीद यही है
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''लौट रहे हैं सब गाँव अपने खुद को बचाने के लिए, ये वहीं हैं जो कभी गाँव छोड़कर गए​ थे शहर कमाने के लिए'

अरे गाँव में क्या रखा है हम तो शहर जा रहे हैं पैसा कमाने... क्यों ऐसा ही कहते हैं न लोग, अपने गाँव को, अपने देश को, उस मिटटी को जिसमे उन्होंने जन्म लिया उसे भूल जाते हैं और चले जाते हैं शहर. चकाचौंध की उस रौशनी में जो उन्हें अब वापस गाँव लौटने के लिए मजबूर कर रही है. आज उस गाँव में ही सब लौटकर आ रहे हैं. एक बीमारी से डरकर सबको अपना गाँव याद आ रहा है, सबको वहां की रोटी अच्छी लगने लगी, वहां की धुप सुहावनी दिखने लगी. वो मुहावरा तो आप सभी ने सुना ही होगा, 'दूर के ढोल सुहावने' कुछ ऐसा ही अब नजर भी आ रहा है.

  

वह गाँव जिस पर अब तक लोगों ने तरह-तरह के आरोप लगाए हैं आज वही गांव लोगों के लिए 'प्रिय घर' हो रहा है. गाँव में रहने वाले व्यक्ति को लोग अशिक्षित, असभ्य, जाहिल, गंवार कहते हैं लेकिन आज वहां सभ्य, महान, शिक्षित, हर कोई भाग रहा हैं केवल एक रोटी के लिए. इस शहर ने क्या दिया, 'कोरोना वायरस'. इससे अच्छे तो गाँव के असभ्य, जाहिल गंवार ही हैं कम से कम कोई वायरस तो नहीं फैलाते क्योंकि उन्हें केवल प्यार फैलाना आता है. वह रोटी खिलाना जानते हैं छीनना नहीं.

''शहर में तो वायरस का बुखार है, गाँव चलो यारों प्यार ही प्यार है'' 

शहर में जिस रोजगार के लिए लोग गाँव से भागकर आए थे वही अब बंद हो गया है इसलिए सबको अपने गाँव की याद सताने लगी. इस समय कोरोना वायरस के संकट ने लोगों को उनके गाँव की अहमियत बता दी है. कई लोगों को यह यकीन है कि शहर में उनका गुजारा हो ना हो लेकिन गाँव उन्हें बचा लेगा. गाँव भूखा मरने नहीं देगा. गाँव में खाने के लिए एक वक्त का निवाला तो मिल ही जाएगा. 

खैर इस समय जो दृश्य हमारी आँखों के सामने है उसे देखकर यह तो कहा जा सकता है कि गाँव कभी किसी को भूखा मरने नहीं देता. एक गाँव की यह पुकार हमेशा होती है कि, 'ए आदमी तूने न जाने कितने ही लांछन मुझपर लगाए हैं लेकिन मै तेरा साथ कभी नहीं छोडूंगा.' एक गाँव की कुछ ऐसी पुकार है, ''हाँ मेरे लाल आ जाओ मैं तुम्हें भूख से नहीं मरने दूँगा. आओ मुझे फिर से सजाओ, मेरी गोद में फिर से चौपाल लगाओ, मेरे आंगन में चाक के पहिए घुमाओ, मेरे खेतों में अनाज उगाओ, खलिहानों में बैठकर आल्हा गाओ, खुद भी खाओ दुनिया को खिलाओ, महुआ पलास के पत्तों को बीनकर पत्तल बनाओ, गोपाल बनो, मेरे नदी ताल-तलैया, बाग-बगीचे  गुलजार करो. बच्चू बाबा की पीस पीस कर प्यार भरी गालियाँ, रामजनम काका के उटपटांग डायलाग, बड़े बुजुर्गों से की जाने वाली अपनापन वाली खीज और पिटाई और प्यार वाली गाली, दशरथ साहू की आटे की मिठाई हजामत और मोची की दुकान, भड़भूजे की सोंधी महक, लईया  चना कचरी, हो रहा बूट खेसारी सब आज भी तुम्हे पुकार रहे है.''  

ए मेरे दोस्त कहते हैं ना पेड़ को कितना भी पत्थर मारो वो फल देना नहीं छोड़ता, ठीक वैसे ही एक गाँव होता है जिसे छोड़कर तुम दूर कहीं भी निकल जाओ और उसे कितना भी भला बुरा कह दो लेकिन वह तुम्हारे लिए हमेशा अच्छा ही सोचता है और करता है. वहां तुम्हे जो सुकून मिलता है वह शहरों की भाग-दौड़ भरी सड़कों पर नहीं मिलेगा. गाँव इंसान के हर उस तनाव को खा जाता है जो उसे खाने के लिए बैठा रहता है.

  

एक गाँव कहता है-  ''तू समय समय पर आया कर मेरे पास, अपने बीबी बच्चों को मेरी गोद में डाल कर निश्चिंत हो जा, दुनिया की कृत्रिमता को त्याग दें. फ्रिज का नहीं घड़े का पानी पी, त्यौहारों समारोहों में पत्तलों में खाने और कुल्हड़ों में पीने की आदत डाल, अपने मोची के जूते और दर्जी के सिले कपड़े पर इतराने की आदत डाल, हलवाई की मिठाई, खेतों की हरी सब्जियाँ फल फूल, गाय का दूध, बैलों की खेती पर विश्वास रख, कभी संकट में नहीं पड़ेगा. हमेशा खुशहाल जिन्दगी चाहता है तो मेरे लाल मेरी गोद में आकर कुछ दिन खेल लिया कर तू भी खुश और मैं भी खुश.''

'ए प्यारे गाँव की गलियां पुकार रहीं हैं तुझको, सुकून वैसा ही मिलेगा जैसा तू पाता है अपनी माँ की गोद में'

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