नई दिल्ली: बहुत कम ही लोग जानते हैं कि आज के दिन, 1934 में, पर्सिया का नाम बदलकर ईरान रखा गया था। यह बदलाव केवल नाम का नहीं था, बल्कि यह एक नई इस्लामिक पहचान की ओर कदम था, जिसने इस देश को पूरी दुनिया में शिया बहुल राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। आज जब हम ईरान के वर्तमान स्वरूप को देखते हैं, तो इसका अतीत हमें कई सवालों और सीखों की ओर ले जाता है। खासकर तब, जब हम यह सोचते हैं कि अगर आज पारसी समुदाय, जो कभी ईरान की धरती पर फला-फूला था, आज अगर हथियार उठाकर अपनी जमीन वापस मांगने लगे, तो क्या ईरान उन्हें आतंकी नहीं कहेगा?
ईरान (फारस या पर्शिया) का इतिहास गौरवशाली रहा है। प्राचीन समय में यह फारस के नाम से जाना जाता था, जहां आर्य सभ्यता का प्रभाव था। वैदिक काल में यह क्षेत्र आर्य भूमि का हिस्सा था। उस समय आर्यों की एक शाखा इस भूमि पर निवास करती थी, और इस क्षेत्र को आर्याना कहा जाता था। पारसी लोग गर्व से अपने नामों के साथ 'आर्य' शब्द जोड़ते थे। सम्राट दार्यवहु (दारा) ने खुद को 'अरियपुत्र' लिखा। यह नाम इस बात का प्रमाण है कि ईरान की जड़ें आर्य संस्कृति में गहराई से जुड़ी हुई थीं। पारसियों की पूजा पद्धति कुछ कुछ हिन्दुस्तानियों जैसी ही थी, वे अग्नि देव की पूजा करते थे, आज भी कई पारसी परिवारों के घर में पवित्र अग्नि नज़र आती है।
ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में फ़ारसी साम्राज्य की स्थापना हुई, जिसने तीन महाद्वीपों और 20 राष्ट्रों पर शासन किया। यह साम्राज्य जरथुस्त्र द्वारा स्थापित धर्म 'जोरोस्त्रियन' को मानता था। यह धर्म सहिष्णुता और शांति का प्रतीक था। लेकिन 7वीं शताब्दी में जब तुर्कों और अरबों ने ईरान पर आक्रमण किया, तब यह शांतिपूर्ण संस्कृति, इस्लामी बर्बरता के सामने टिक नहीं पाई। इस्लामिक हमलों ने पारसी सभ्यता को पूरी तरह नष्ट कर दिया। कत्लेआम और जबरन धर्मांतरण के कारण पारसी समुदाय को अपना देश छोड़ना पड़ा।
इस्लामिक आक्रमण के बाद कुछ पारसी लोग जान बचाकर भारत आए। वे गुजरात के दीव क्षेत्र में पहुंचे, जहां राजा जाड़ी राणा ने उन्हें शरण दी। उन्होंने 721 ईस्वी में पहला अग्नि मंदिर बनाया, जो आज भी उनकी आस्था का केंद्र है। वर्तमान में भारत में पारसी समुदाय की जनसंख्या लगभग 1 लाख है, जिनमें से अधिकतर मुंबई में रहते हैं। गुजरात तट पर शरण पाने के कारण आज भी तमाम पारसी लोग, गुजराती भाषा में ही बात करते नज़र आते हैं, उन शरणार्थियों ने गुजराती को ही अपनी मातृभाषा के रूप में अपना लिया है और भारत माता को अपनी भौगोलिक माँ के रूप में। क्योंकि, देश के नाम पर अब उनके पास अपना कुछ भी शेष नहीं है, कभी सैकड़ों सालों तक अपने गौरवपूर्ण इतिहास पर नाज़ करने वाला फारस आज इस्लामी कट्टरपंथ के शिकंजे में फंसकर ईरान बन चुका है।
यह कहानी केवल पारसियों की नहीं है। यह उन सभी सभ्यताओं की कहानी है, जो इस्लामिक आक्रमणों के कारण नष्ट हो गईं। भारत ही नहीं, दुनिया भर में जहां-जहां इस्लामिक हमले हुए, वहां की स्थानीय संस्कृतियां और परंपराएं मिट गईं। उनकी जगह इस्लाम ने ले ली। यही कारण है कि आज जब हम इतिहास को खंगालते हैं, तो देखते हैं कि इस्लामी आक्रमणों ने न केवल जमीन, देश हड़पे, बल्कि सभ्यताओं को भी खत्म कर दिया।
अब सवाल यह उठता है कि अगर पारसी समुदाय अपने मूल स्थान ईरान पर हमला करे और कहे कि उनकी जमीन उनसे छीन ली गई थी, तो ईरान उन्हें आतंकी कहेगा या स्वतंत्रता सेनानी? क्योंकि कश्मीर में बेकसूरों का खून बहाने वाले आतंकियों को तो दुनियाभर के मुस्लिम बड़ी शान से आज़ादी के लिए लड़ने वाले मुजाहिद कहते हैं। जिस हमास ने इजराइल में महिलाओं के साथ दरिंदगी की, बेकसूर लोगों को गोलियों से भून डाला, उन्हें भी इस्लामी समाज स्वतंत्रता सेनानी बताता है। तो इस हिसाब से पारसियों को भी ईरान के खिलाफ हथियार उठा लेना चाहिए, वे भी स्वतंत्रता सेनानी कहलाएंगे, उनका तो देश सचमुच इस्लामी आक्रांताओं ने हड़पा है। लेकिन क्या इस्लामी जगत इसे बर्दाश्त कर पाएगा ?
यही सवाल दुनिया के कई हिस्सों में उठता है। जिन समुदायों को इस्लामी आक्रांताओं द्वारा अपनी जमीनों से बेदखल कर दिया गया, वे अगर आज अपने हक के लिए लड़ें, तो उन्हें चरमपंथी या आतंकी क्यों कहा जाता है? जबकि, मुस्लिम समुदाय के लोग यदि कहीं जमीन कब्जाने के लिए भी लड़ें, तो उन्हें हीरो के रूप में पेश किया जाता है। जैसे कश्मीर, जो भारत का अभिन्न अंग है। पर इसके बावजूद दशकों से इस्लामी आतंकी धरती के स्वर्ग को नर्क बनाने में लगे हुए हैं और वहां रक्तपात करते रहते हैं। उनका दावा है कि ये जमीन मुसलमानों की है, लेकिन क्या ये सत्य है? पैगंबर मोहम्मद के जन्म से सैकड़ों सालों पहले से कश्मीर में पवित्र मंत्रों और श्लोकों की ध्वनि गूंजती रही है, जो स्पष्ट बताती है कि उस धरती की सांस्कृतिक पहचान क्या है। लेकिन, जिस तरह इन कट्टरपंथियों ने फारस के साथ किया, वैसा ही ये भारत के साथ करना चाहते हैं, इसी कोशिश में 1400 साल गुजर गए। सबसे पहले मोहम्मद बिन कासिम यही सपना लेकर हिंदुस्तान आया था, इसके बाद दर्जनों आए, कुछ ने कुछ समय तक भारत पर शासन भी किया, लेकिन हर बार हिंदुस्तान किसी घायल शेर की तरह उठ खड़ा हुआ और आक्रांताओं से अपनी पूण्य भूमि को मुक्त कराया। हालाँकि, पारसी इस मामले में दुर्भाग्यशाली रहे, वे लड़ने की ताकत में होते, लेकिन उससे पहले ही उनकी आबादी का समूल नाश कर दिया गया। आज पूरी दुनिया में महज दो लाख पारसी बचे हैं, जिनकी बड़ी संख्या भारत में रहती है।
ईरान की वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह साफ है कि उसने अपने इस्लामिक पहचान को मजबूत करने के लिए न केवल अपने इतिहास को बदला, बल्कि दूसरों की संस्कृति और सभ्यता को मिटाने में भी भूमिका निभाई। कुलभूषण जाधव का मामला इसका उदाहरण है। चाहाबर बंदरगाह से उन्हें जबरन पाकिस्तान ले जाया गया और फांसी की सजा देने की स्थिति पैदा कर दी गई। यह वही ईरान है, जो खुद को न्यायप्रिय और शांति समर्थक बताता है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के खिलाफ कदम उठाने से नहीं चूकता।
इस सबके बावजूद भारत ने पारसी समुदाय को न केवल शरण दी, बल्कि उन्हें फलने-फूलने का मौका भी दिया। पारसी समुदाय आज भारत के विकास में अहम भूमिका निभा रहा है। यह भारत की संस्कृति और सहिष्णुता का प्रतीक है। लेकिन सवाल फिर भी वही है - क्या इस्लामी आक्रमणों की वजह से उजड़े समुदायों को अपनी जमीन वापस मांगने का हक नहीं है? क्या वे आतंकी कहलाएंगे? यह सवाल केवल पारसियों का नहीं है, बल्कि उन सभी सभ्यताओं का है, जो आक्रमणों की वजह से नष्ट हो गईं। यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।
अगर इतिहास पर नजर डालें, तो यह साफ है कि इस्लामिक आक्रमणों ने दुनिया के कई हिस्सों में तबाही मचाई। चाहे वह भारत हो, मध्य एशिया हो या अफ्रीका, हर जगह की स्थानीय संस्कृतियों को मिटा दिया गया। क्या यह उचित था? और अगर नहीं, तो इस पर चर्चा क्यों नहीं होती? आज जब भारत में फैजाबाद का नाम अयोध्या और इलाहाबाद का नाम प्रयागराज किया जाता है, तो मीडिया का एक वर्ग इसे बड़ा मुद्दा बना देता है। लेकिन जब 1934 में पर्सिया का नाम बदलकर ''इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान'' कर दिया गया, तब किसी ने सवाल नहीं उठाया। क्यों? क्या यह दोहरे मापदंड नहीं हैं?
आज की तारीख हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि इतिहास से सबक लिया जाए। उन सभ्यताओं को याद रखा जाए, जो मिट गईं, और उन संस्कृतियों को बचाने की कोशिश की जाए, जो अब भी बची हुई हैं। भारत जैसे देश को अपने इतिहास से सीख लेकर अपनी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करनी होगी, ताकि आने वाली पीढ़ियां गर्व से कह सकें कि उन्होंने अपनी जड़ों को बचाए रखा।