नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 और अन्य नए आपराधिक कानूनों के कुछ प्रावधानों की संवैधानिकता को चुनौती दी गई है। यह याचिका वकील विशाल तिवारी ने दायर की है, जो इन प्रावधानों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन मानते हुए इन्हें असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध करते हैं। विशेष रूप से, याचिका में धारा 187(2), 187(3), 43(3), 173(3) और 85 को चुनौती दी गई है। धारा 187(2) और 187(3) अभियुक्तों की हिरासत से संबंधित हैं, जबकि धारा 43(3) आदतन अपराधियों की गिरफ्तारी के दौरान हथकड़ी के उपयोग की अनुमति देती है। धारा 173(3) एफआईआर दर्ज करने से पहले 14 दिनों की प्रारंभिक जांच का प्रावधान करती है।
याचिकाकर्ता का तर्क है कि इन प्रावधानों से पुलिस को अत्यधिक शक्तियां मिलती हैं, जिससे पुलिस की बर्बरता और मनमानी गिरफ्तारी जैसी समस्याएं बढ़ सकती हैं। उन्होंने यह भी दावा किया है कि यह कानून कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विपरीत है और देश को धीरे-धीरे पुलिस राज्य की ओर ले जा सकता है। याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि वह न्यायिक न्यायालयों को संज्ञेय अपराधों में एफआईआर दर्ज करने के लिए ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में दिए गए निर्देशों का पालन सुनिश्चित करने का निर्देश दे।
याचिका में यह भी कहा गया है कि लोकसभा द्वारा पारित इन नए कानूनों में भारतीय न्याय संहिता, भारतीय साक्ष्य संहिता, और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता शामिल हैं, जो औपनिवेशिक काल से चले आ रहे कानूनों की जगह लेंगे। लेकिन याचिकाकर्ता का आरोप है कि इन कानूनों के कई प्रावधान मौजूदा कानूनों का ही पुनर्लेखन हैं और इनमें कुछ नया नहीं है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा अचिन गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य मामले में दिए गए निर्देश का हवाला देते हुए कहा कि नई धारा 85 और 86 में पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
याचिका में यह भी बताया गया है कि इन कानूनों के तहत पुलिस हिरासत की अवधि 15 दिनों से बढ़ाकर 90 दिन या उससे अधिक कर दी गई है, जो यातनाओं को बढ़ावा देने वाला एक चौंकाने वाला प्रावधान है। इसके अलावा, पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों और बर्बरता के मामलों पर कोई ठोस प्रावधान नहीं किया गया है। सीआरपीसी की धारा 41-ए को समाप्त कर दिया गया है, जिससे अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला अप्रभावी हो गया है।
याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि विपक्ष के कई सदस्यों की अनुपस्थिति में इन विधेयकों को ध्वनि मत से पारित किया गया, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भी सवाल उठता है। उन्होंने इन कानूनों को असंवैधानिक और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखते हुए सुप्रीम कोर्ट से इनके क्रियान्वयन पर रोक लगाने का अनुरोध किया है।