रायपुर: यह संघर्ष कथा है एक ऐसी मां की जो दोनों पैरों से दिव्यांग है, मगर किसी की मोहताज नहीं. सपना सिर्फ एक, बेटे को फौजी की वर्दी में देखना, ताकि वो भारत माता की रक्षा के लिए सरहद पर का सके. उस दिन को देखने के लिए यह मां जो मेहनत कर रही है, वह ऐसे तमाम लोगों के लिए प्रेरणादायक है, जो दिव्यांगता को ओढ़कर जिंदगी को कोसते हैं. राजधानी रायपुर से करीब 10 किलोमीटर दूर सेजबहार इलाके में रहने वाली अंजलि तिवारी बचपन से ही दोनों पांवों से दिव्यांग हैं, शादी हुई, तब तक पति ठीक थे लेकिन अचानक उन्हें बीमारी ने घेर लिया, धीरे-धीरे उनके पति के लिवर ने 80 प्रतिशत काम करना बंद कर दिया, उनका काम पर जाना भी बंद हो गया और उनकी दवा में ही हजारों रुपये महीने खर्च होने लगे, यहीं से अंजलि की जिंदगी ने करवट बदली.
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घर चलाना मुश्किल था, इसलिए अंजलि ने खुद को घर की चहारदीवारी से बाहर निकाला और निकल पड़ीं संघर्ष के नए रास्ते पर, जीवन यापन के लिए उन्होंने माध्यम बनाया आटो को, हालांकि पैरों की दिव्यांगता आड़े आ रही थी और पैसे की भी समस्या थी. अंतत: अंजलि ने अब तक सहेजी अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर एक ई-रिक्शा खरीद लिया, अपनी दिव्यांगता को देखते हुए ई-रिक्शे को मोडीफाई करवाया, इसमें भी पूंजी खर्च हुई, इसके बाद ई-रिक्शे को चलाना सीखा, आज रायपुर की सड़कों पर अंजलि का ई-रिक्शा फर्राटे से दौड़ता है. सुबह परिवार के लिए खाना पकाने, पति को दवा खिलाने और बेटे को स्कूल भेजने के बाद 10 बजे अंजलि रिक्शा लेकर रायपुर पहुंच जाती हैं. दोपहर का भोजन कहीं रास्ते में ही कर लेती हैं और शाम पांच बजे घर लौट जाति हैं. बीते छह महीनों से अंजलि का हौसला और घर-काम से तालमेल देखकर आसपास के लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं, अंजलि कहती हैं कि ई-रिक्शे से रोज 700 से 800 रुपये के बीच आमदनी हो जाती है.
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इसी में से वे अपने बेटे दुर्गेश के लिए, जो कि अभी मात्र छह वर्ष का है, प्रतिदिन 300 रुपये अलग निकालकर रख देती हूं, वे कहती हैं कि यह पूंजी इसलिए जमा कर रही हूं ताकि आगे चलकर बेटे को किसी अच्छे सैन्य स्कूल में दाखिला दिला सकूं. वो भावुक होकर कहती हैं 'बेटा फौजी बन जाए तो मैं गंगा नहा लूंगीं. आखिर फौजी ही क्यों, इस सवाल पर अंजलि बताती हैं कि आए दिन सरहद पर खून खराबे की खबरें सुनने को मिलती हैं, हमारे कई जवान शहीद भी होते हैं, मैं चाहती हूं कि मेरा बेटा भी फौजी बनकर देश की सेवा करे.
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