गर्भवती युवती नहीं बताना चाहती कि पेट में बच्चा किसका है..? हाईकोर्ट पहुंचा पिता

गर्भवती युवती नहीं बताना चाहती कि पेट में बच्चा किसका है..? हाईकोर्ट पहुंचा पिता
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मुंबई: बॉम्बे हाई कोर्ट में एक अनोखा और संवेदनशील मामला सामने आया है, जहां एक 66 वर्षीय पिता ने अपनी 27 वर्षीय दत्तक बेटी की गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए याचिका दायर की। पिता का कहना है कि उनकी बेटी मानसिक रूप से अन्य लड़कियों की तरह सामान्य नहीं है और वह गर्भधारण के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम है। 

यह मामला तब शुरू हुआ जब महिला, जो अब 20 सप्ताह से अधिक गर्भवती है, ने गर्भपात कराने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। इसके साथ ही उसने यह भी बताने से इनकार कर दिया कि गर्भ में पल रहे बच्चे का पिता कौन है। पिता ने बताया कि उन्होंने 1998 में बच्ची को गोद लिया था, जब वह केवल छह महीने की थी। उनके अनुसार, महिला को बचपन से ही मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कई समस्याएं रही हैं। पिता ने दावा किया कि उसे बॉर्डरलाइन पर्सनालिटी डिसऑर्डर और डिप्रेशन है, और उसे नियमित रूप से दवा की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, महिला के हिंसक होने की भी बात कही गई। 

पिता ने यह भी कहा कि बेटी ने 13-14 साल की उम्र से ही यौन गतिविधियों में संलिप्त होना शुरू कर दिया था और अक्सर रात में बिना बताए घर से गायब रहती थी। नवंबर में एक नियमित स्वास्थ्य जांच के दौरान ही उन्हें बेटी के गर्भवती होने का पता चला। पिता का यह भी कहना है कि उनकी आर्थिक स्थिति और उम्र के कारण वे गर्भ में पल रहे बच्चे का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं। उन्होंने यह तर्क दिया कि उनकी बेटी बेरोजगार है और एक नवजात शिशु की देखभाल करने में सक्षम नहीं है। 

हाई कोर्ट के जस्टिस रवींद्र वी. घुगे और जस्टिस राजेश एस. पाटिल की खंडपीठ ने पिता की याचिका पर सख्त टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि महिला के माता-पिता होने के नाते वे अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते, भले ही बेटी विशेष जरूरतों वाली हो। कोर्ट ने यह भी सवाल उठाया कि पिता ने इतने गंभीर मामले में अब तक पुलिस में शिकायत दर्ज क्यों नहीं कराई। जब पिता ने बताया कि उन्होंने बेटी की सहमति के अभाव में एफआईआर दर्ज नहीं कराई, तो कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी अपराध की शिकायत दर्ज करने के लिए पीड़िता की सहमति जरूरी नहीं होती। 

इसके अलावा, अदालत ने आर्थिक स्थिति और वृद्धावस्था के तर्क को भी खारिज कर दिया। कोर्ट ने टिप्पणी की, "अगर हम सभी बुढ़ापे के बारे में सोचना शुरू कर देंगे, तो कोई भी बच्चे को जन्म नहीं देगा। पैसे की कमी गर्भपात का आधार नहीं हो सकती।" राज्य के अतिरिक्त लोक अभियोजक ने अदालत को बताया कि महिला बौद्धिक रूप से विकलांग नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि महिला ने एक नियमित स्कूल से 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की है। अभियोजक ने यह तर्क भी दिया कि महिला की मानसिक स्थिति बचपन में गोद लिए जाने के बाद प्यार और स्नेह की कमी के कारण खराब हो सकती है। 

कोर्ट ने मामले को जेजे अस्पताल के मेडिकल बोर्ड को भेज दिया है, ताकि महिला और गर्भ में पल रहे भ्रूण की स्थिति का विस्तृत मूल्यांकन किया जा सके। बोर्ड ने रिपोर्ट देने के लिए अधिक समय मांगा, जिसके चलते मामले की सुनवाई 8 जनवरी तक के लिए स्थगित कर दी गई। 

यह मामला कई जटिल सवाल खड़े करता है। क्या माता-पिता, विशेष रूप से गोद लिए गए बच्चों के मामले में, अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं? क्या गर्भपात की अनुमति देना महिला और भ्रूण दोनों के सर्वोत्तम हित में होगा? हाई कोर्ट के इस मामले में अंतिम फैसले का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है।

 

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