नई दिल्ली: अयोध्या के मोहम्मद शरीफ को लोग ‘लाशों के मसीहा’ के नाम से पहचानते हैं. 83 वर्षीय मोहम्मद शरीफ के रहते जिले में विगत 25 वर्षों से किसी भी लावारिस लाश को अंतिम संस्कार के लिए तरसना नहीं पड़ा. उनकी इस समाज सेवा के लिए उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा गया है. वैसे तो मोहम्मत शरीफ को पद्मश्री मिलने का ऐलान 25 जनवरी, 2020 को ही कर दिया गया था. किन्तु कोरोना संकट के कारण उन्हें और पद्म पुरस्कार पाने वाली कई अन्य हस्तियों को अब जाकर ये सम्मान मिला है. सोमवार 8 नवंबर को पद्मश्री से सम्मानित किए जाने के बाद से ही मोहम्मद शरीफ के जिले के लोगों में खुशी का माहौल है.
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, 1992 में मोहम्मद शरीफ के बड़े बेटे रईस की सुल्तानपुर में एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी. शरीफ को इस हादसे के संबंध में पता नहीं था. रईस का शव सड़क पर ही पड़ा रहा और कोई उसे अस्पताल नहीं ले गया. रिपोर्ट के अनुसार, रईस के शव को जानवरों ने नोच खाया था. इस वजह से मोहम्मद शरीफ अपने बेटे को दफ्ना भी नहीं पाए. इस बात ने उनको अंदर तक झकझोर कर रख दिया था. तब मोहम्मद शरीफ ने कसम उठाई कि वे किसी भी शव की दुर्गति नहीं होने देंगे. रिपोर्ट के अनुसार, तभी से मोहम्मद शरीफ जिले के अस्पतालों में जाकर प्रत्येक लावारिस लाश के बारे में जानकारी लेते रहते हैं. जब भी उन्हें लावारिस शव पाए जाने की सूचना मिलती, तो वे अपना ठेला लेकर पहुंच जाते. यदि किसी लाश को 72 घंटों तक कोई लेने नहीं आता, तो पुलिस वो शव मोहम्मद शरीफ को सौंप देती.
जिसके बाद मोहम्मद शरीफ मरने वाले शख्स के धर्म के अनुसार ही उसका अंतिम संस्कार करते थे. शव किसी हिंदू का हो तो सरयू के घात पर पूरे रीति-रिवाजों के साथ उसका दाह संस्कार किया जाता, वहीं मुस्लिम होने पर शव को कब्र में दफन किया जाता था. इस तरह मोहम्मद शरीफ अब तक 25 हजार से अधिक लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं. जिसके बाद से लोग उन्हें ‘लावारिस लाशों के वारिस और मसीहा’ कहने लगे हैं.
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