राष्ट्रपति चुनाव नही बल्कि दलित के नाम हो रही राजनीति

राष्ट्रपति चुनाव नही बल्कि दलित के नाम हो रही राजनीति
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राष्ट्रपति चुनाव को लेकर घमसान जारी है. एक तरफ एनडीए ने रमानाथ कोविंद को राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया तो वही दूसरी तरफ विपक्ष ने भी मीरा कुमार को अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया. दोनों ही उम्मीदवार में कई समानता है. ये दोनों उम्मीदवार बिहार से आते है और दलित है. लिहाजा अब महामहिम के चुनाव को दलित रंग दिया जाने लगा है. वोटों की अंकगणित के लिहाज से एनडीए का उम्मीदवार भारी पड़ सकता है. फिर भी राजनीतिक प्रतिष्ठा, उपस्थिति और विश्वसनीयता के हथियारों से यूपीए और वाम दलों सहित लगभग बहुमत विपक्ष ने मुकाबले का निश्चय किया है. कुछ मुख्यमंत्री और क्षेत्रीय दल इस जमावड़े से अलबत्ता छिटककर भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करेंगे. उल्लेखनीय है दोनों उम्मीदवार दलित हैं. राजनीति में दलित होने को मुद्दा बनाकर दोनों समूह राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं या अगला राष्ट्रपति चुन रहे हैं. साफ नहीं है.

आजादी मिलने के पहले से ही भारत के भविष्य का कंटूर तय किया गया था. मुख्यतः इंग्लैंड और अमेरिका की संवैधानिक शासन प्रणालियों से उधार लेकर आजाद भारत में कामकाज के संचालन के लिए वर्णसंकर लगती व्यवस्था ईजाद और अनूदित कर ली गई थी. तय हुआ भारत में लोकतंत्रात्मक संविधान बनेगा. प्रत्येक नागरिक को बराबर वोट का अधिकार होगा. संविधान ने पवित्र जुमला रचा. देश का राजकाज राष्ट्रपति के नाम से चलेगा. उसी तर्ज पर राज्यों में राष्ट्रपति की संवैधानिक सत्ता के तहत राज्यपालों के नाम से राजकाज का संचालन होगा. नट-नटी संतुलन बिठाते संविधान ने मंत्रिपरिषदों को मशविरा बल्कि अप्रत्यक्ष हुक्म देने के लिए राष्ट्रपति के साथ बिठा दिया.राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह और निर्णय को असहमति दे सकते हैं. वापस भी लौटा सकते हैं. दुबारा फिर वापस आ जाने से मंजूर करने की बाध्यता भी होगी.

राष्ट्रपति फांसी के सजायाफ्ता को माफी दे सकता है. आंतरिक या बाहरी खतरा होने पर देश में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है. विवादित संवैधानिक मुद्दे सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की राय मांग सकता है. संसद के सदनों को देशहित में संबोधन करता है. अभिभाषण की तश्तरी पर सपने रखकर देता रहता है. राष्ट्रपति संविधान की इबारतों की रक्षा कर सकता है. उसका सरकारी घर दुनिया का सबसे बड़ा राजप्रासाद है. भले ही भारत गरीब से गरीबतर होता चला गया है. कोई राष्ट्रपति अपने भवन के सभी कमरों को पैदल चलकर देख नहीं पाया होगा. उसे वैभव में जीने की संवैधानिक व्यवस्था की मजबूरी है. सरकारी महल में मुगलिया बागीचा भी है. हर राष्ट्रीय पर्व और संविधान दिवस 26 जनवरी को राष्ट्रपति का अभिभाषण बुजुर्ग की नसीहत बनकर जनता के कानों में डाला जाता है.

मंत्रिपरिषद और नेता अमूमन उसे एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं. पहले और दूसरे कार्यकाल के राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद संविधान के पितृपुरुष थे. उनकी अध्यक्षता में संविधान सभा ने देशभक्तों, कानून के जानकारों, राजेरजवाड़ों के प्रतिनिधियों, अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों के नुमाइंदों के अदभुत ऊंचाई के भाषण सुने. राजेन्द्र प्रसाद ने अंतिम भाषण में संविधान सभा की पीठ ठोंकते चुटकियां भी काटीं. उन्होंने विधायिकाओं के सदस्यों की साक्षर शिक्षा का उल्लेख नहीं होने पर सवाल उठाए. प्रारूप समिति के असाधारण प्रभारी विधिमंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान को मिला जुला रचनात्मक उत्पाद बताया. अगली सांस में कहा, "हमसे जैसे बना हमने बना दिया है. भविष्य की संसदें इस संविधान का भाग्य और कर्म तय करेंगी. हमें पता नहीं भविष्य कैसा होगा."

वर्तमान अंबेडकर और राजेन्द्र प्रसाद बल्कि संविधान सभा के हीरो जवाहरलाल नेहरू से भी जिरह कर रहा है. देश के सबसे बड़े विचारक, बुजुर्ग, प्रामाणिक चरित्र धारक राष्ट्रपुरुष गांधी से संविधान बनाने की प्रेरणा लेकर उसकी उपेक्षा की गई. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. राधाकृष्णन, डॉ जाकिर हुसैन, डॉ. अब्दुल कलाम जैसे अजातशत्रु राष्ट्रपतियों के नाम गर्व से लिए जाते हैं. सिर फुटौव्वल के जरिए वीवी गिरि ने नीलम संजीव रेड्डी को कांग्रेस की राजनीति के तहत परास्त कर राष्ट्रपति पद का मल्लयुद्ध किया. श्रीमती प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति बनाकर कांग्रेस ने राष्ट्रपति भवन में पार्टी कार्यालय की आत्मा बींध दी. पतन होता ही गया है. ढलान पर चलने में ज्यादा आसानी है. नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ढाल पर दौड़ रही है. राष्ट्रपति चुनने दोनों समूह दलित कार्ड खेल रहे हैं. क्या देश में सवर्ण, मुसलमान, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध, सिक्ख वगैरह नहीं रहते. मर्दुमशुमारी के लिहाज से मुसलमान दूसरा सबसे बड़ा समूह हैं. आदिवासी भी कम नहीं हैं.

सत्ता स्वार्थ के लिए राष्ट्रपति पद की गरिमा बलि वेदी पर है. दोनों उम्मीदवारों का कद ऐसा नहीं है कि लोग घर-घर जानें. उनके जीवन परिचय छापने की होड़ मीडिया में है. राष्ट्रपति को सांसदों और विधायकों के गुप्त मतदान द्वारा चुना जाना प्रावधानित है. फिर भी राजनीतिक पार्टियां संविधान के खिलाफ राष्ट्रपति के उम्मीदवार का चयन संचालन खुले आम करती हैं. सभी सांसद और विधायक गोपनीय दिए जाने वाले वोट का ऐलानिया प्रचार कर रहे हैं कि किसे वोट देंगे. कई व्यक्ति राष्ट्रीय सहमति के फलक पर कहीं न कहीं खुद को स्थापित करते रहे हैं. मौजूदा राष्ट्रपति प्रणवकुमार मुखर्जी को दुबारा मौका दिए जाने से संविधान की बेहतर मर्यादा बनती. राष्ट्रीय राजनीति में सहमति का नया स्पेस खुलता.

मशहूर अर्थशास्त्री नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन, दुर्लभ शिक्षाषास्त्री डॉ. यशपाल, कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन, पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, लाल कृष्ण आडवाणी, गांधीजी के पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी, राजमोहन गांधी, उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, कुशल सियासतदां सुषमा स्वराज, फली नरीमन जैसे विधिज्ञ के अतिरिक्त और भी नाम होंगे. उन्हें संतुलित समझ के साथ आधुनिकता से कदमताल करते जनमत के विचारण के फोकस में लाया जा सकता था. निर्मल वर्मा, अनंत मूर्ति, धर्मपाल, विपन चंद्र, इरफान हबीब, आशीष नंदी, श्यामाचरण दुबे, उपेंद्र बख्शी, किशन पटनायक, सुभाष काश्यप, पी.एन. भगवती, कृष्ण अय्यर जैसे सैकड़ों मनीषी अपने अपने समय में सरकारों से विचार विमर्श के लिए उपयुक्त समझे जा सकते थे. क्या तुक है कि राष्ट्रपति को भारत का प्रथम नागरिक का सम्मान देने बार-बार दलित बयान की जुगाली की जुगलबंदी की जा रही है.

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