आप सभी को बता दें कि भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को श्रीकृष्ण की बाल सहचरी, जगजननी भगवती शक्ति राधाजी का जन्म हुआ था और इस दिन को राधा अष्टमी के नाम से मनाया जाता है. कहते हैं कि राधा के बिना श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अधूरा है और वह पुरे नहीं है. यदि श्रीकृष्ण के पास से राधा को अलग कर दिया जाए तो वह अकेले हो जाएंगे और अधूरे भी. श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व माधुर्यहीन तब होता है जब उनके पास राधा को लाया जाता. राधा के ही कारण श्रीकृष्ण रासेश्वर कहलाते हैं. जिस प्रकार विभिन्न देवी-देवताओं के 'कवच' पाठ होते हैं ठीक उसी प्रकार राधाजी का भी कवच उपलब्ध है जिसे श्रीब्रह्मवैवर्ते पुराण से लिया गया है और उस कवच को राधा अष्टमी के दिन पढ़ने से लाभ मिलता है. कहते हैं कृष्णप्रिया राधाजी को वृंदावन की अधीश्वरी माना जाता रहा है. तो आइए बताते हैं आपको वह 'श्री राधा कवचम्' जिसे पढ़कर आपको लाभ मिलेगा.
घर में भूलकर भी ना रखे इन देवताओं की मूर्तियों को वरना..,
श्री राधिकायै नम:
।।अथ श्रीराधाकवचम्।।
महेश्वर उवाच:-
श्रीजगन्मङ्गलस्यास्य कवचस्य प्रजापति:।।1।।
ऋषिश्चन्दोऽस्य गायत्री देवी रासेश्वरी स्वयम्।
श्रीकृष्णभक्तिसम्प्राप्तौ विनियोग: प्रकीर्तित:।।2।।
शिष्याय कृष्णभक्ताय ब्रह्मणाय प्रकाश्येत्।
शठाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात्।।3।।
राज्यं देयं शिरो देयं न देयं कवचं प्रिये।
कण्ठे धृतमिदं भक्त्या कृष्णेन परमात्मना।।4।।
मया दृष्टं च गोलोके ब्रह्मणा विष्णुना पुरा।
ॐ राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च।।5।।
कृष्णेनोपासितो मन्त्र: कल्पवृक्ष: शिरोऽवतु।
ॐ ह्रीं श्रीं राधिकाङेन्तं वह्निजायान्तमेव च।।6।।
कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्रयुग्मं सदावतु।
ॐ रां ह्रीं श्रीं राधिकेति ङेन्तं वह्नि जायान्तमेव च।।7।।
मस्तकं केशसङ्घांश्च मन्त्रराज: सदावतु।
ॐ रां राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च।।8।।
सर्वसिद्धिप्रद: पातु कपोलं नासिकां मुखम्।
क्लीं श्रीं कृष्णप्रियाङेन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम्।।9।।
ॐ रां रासेश्वरीङेन्तं स्कन्धं पातु नमोऽन्तकम्।
ॐ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु।।10।।
वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्ष: सदावतु।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम्।।11।।
कृष्णप्राणाधिकाङेन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम्।
पादयुग्मं च सर्वाङ्गं सन्ततं पातु सर्वत:।।12।।
राधा रक्षतु प्राच्यां च वह्नौ कृष्णप्रियावतु।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम्।।13।।
पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता।
उत्तरे सन्ततं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी।।14।।
सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता।
जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा।।15।।
महाविष्णोश्च जननी सर्वत: पातु सन्ततं।
कवचं कथितं दुर्गे श्रीजगन्मङ्गलं परम्।।16।।
यस्मै कस्मै न दातव्य गुढाद् गुढतरं परम्।
तव स्नेहान्मयाख्यातं प्रवक्तं न कस्यचित्।।17।।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालङ्कारचन्दनै:।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ धृत्वा विष्णोसमो भवेत्।।18।।
शतलक्षजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत्।
यदि स्यात् सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत्।।19।।
एतस्मात् कवचाद् दुर्गे राजा दुर्योधन: पुरा।
विशारदो जलस्तम्भे वह्निस्तम्भे च निश्चितम्।।20।।
मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे।
सूर्यपर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ।।21।।
बलाय तेन दत्तं च ददौ दुर्योधनाय स:।
कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नर:।।22।।
नित्यं पठति भक्त्येदं तन्मन्त्रोपासकश्च य:।
विष्णुतुल्यो भवेन्नित्यं राजसूयफलं लभेत्।।23।।
स्नानेन सर्वतीर्थानां सर्वदानेन यत्फलम्।
सर्वव्रतोपवासे च पृथिव्याश्च प्रदक्षिणे।।24।।
सर्वयज्ञेषु दीक्षायां नित्यं च सत्यरक्षणे।
नित्यं श्रीकृष्णसेवायां कृष्णनैवेद्यभक्षणे।।25।।
पाठे चतुर्णां वेदानां यत्फलं च लभेन्नर:।
यत्फलं लभते नूनं पठनात् कवचस्य च।।26।।
राजद्वारे श्मशाने च सिंहव्याघ्रान्विते वने।
दावाग्नौ सङ्कटे चैव दस्युचौरान्विते भये।।27।।
कारागारे विपद्ग्रस्ते घोरे च दृढबन्धने।
व्याधियुक्तो भवेन्मुक्तो धारणात् कवचस्य च।।28।।
इत्येतत्कथितं दुर्गे तवैवेदं महेश्वरि।
त्वमेव सर्वरूपा मां माया पृच्छसि मायया।।29।।
श्रीनारायण उवाच।
इत्युक्त्वा राधिकाख्यानं स्मारं च माधवम्।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्ग: साश्रुनेत्रो बभुव स:।।30।।
न कृष्णसदृशो देवो न गङ्गासदृशी सरित्।
न पुष्करसमं तीर्थं नाश्रामो ब्राह्मणात् पर।।31।।
परमाणुपरं सूक्ष्मं महाविष्णो: परो महान्।
नभ परं च विस्तीर्णं यथा नास्त्येव नारद।।32।।
तथा न वैष्णवाद् ज्ञानी यिगीन्द्र: शङ्करात् पर:।
कामक्रोधलोभमोहा जितास्तेनैव नारद।।33।।
स्वप्ने जागरणे शश्वत् कृष्णध्यानरत: शिव:।
यथा कृष्णस्तथा शम्भुर्न भेदो माधवेशयो:।।34।।
यथा शम्भुर्वैष्णवेषु यथा देवेषु माधव:।
तथेदं कवचं वत्स कवचेषु प्रशस्तकम्।।35।।
।।इति श्रीब्रह्मवैवर्ते श्रीराधिकाकवचं सम्पूर्णम्।।
जीवन और घर की खुशियां बर्बाद कर देते हैं यह पेड़