भगवान शिव के कई भक्त रहे हैं और इनमे दैत्य, दानव, राक्षस आदि सभी लोग शामिल हैं। इन्ही में नाम आता है रावण का जिसमें राक्षस समाज की प्रवृत्तियां थीं और वह राक्षस समाज के लिए ही कार्य करता था। जी हाँ, कहा जाता है सभी राक्षस जातियां शिव की ही भक्त थीं। अब आज हम आपको बताने जा रहे हैं रावण की शिव भक्ति का किस्सा.
शिवभक्त रावण : कहते हैं एक बार रावण जब अपने पुष्पक विमान से यात्रा कर रहा था तो रास्ते में एक वन क्षेत्र से गुजर रहा था। उस दौरान उस क्षेत्र के पहाड़ पर शिवजी ध्यानमग्न बैठे थे। शिव के गण नंदी ने रावण को रोकते हुए कहा कि इधर से गुजरना सभी के लिए निषिद्ध कर दिया गया है, क्योंकि भगवान तप में मग्न हैं। कहते हैं रावण को यह सुनकर क्रोध उत्पन्न हुआ और उसने अपना विमान नीचे उतारकर नंदी के समक्ष खड़े होकर नंदी का अपमान किया और फिर जिस पर्वत पर शिव विराजमान थे, उसे उठाने लगा। यह दृश्य देखने के बाद शिव ने अपने अंगूठे से पर्वत को दबा दिया और इस वजह से रावण का हाथ भी दब गया. उसके बाद वह शिव से प्रार्थना करने लगा कि मुझे मुक्त कर दें। इसी घटना के बाद वह शिव का भक्त बन गया।
शिव तांडव स्तोत्र : आप सभी को बता दें कि रावण ने शिव तांडव स्तोत्र की रचना करने के अलावा अन्य कई तंत्र ग्रंथों की रचना कि है. जी दरअसल एक बार जब रावण ने कैलाश पर्वत उठा लिया था उस दौरान वह पूरे पर्वत को ही लंका ले जाने लगा, तो भगवान शिव ने अपने अंगूठे से तनिक-सा जो दबाया तो कैलाश पर्वत फिर जहां था वहीं अवस्थित हो गया। इसी के बाद रावण क्षमा मांगते हुए कहने लगा- 'शंकर-शंकर'- अर्थात क्षमा करिए, क्षमा करिए और स्तुति करने लग गया। उसकी क्षमा याचना और स्तुति को आज 'शिव तांडव स्तोत्र' कहा जाता है.
शिवलिंग : आपको बता दें कि एक बार रावण ने शिवजी की घोर तपस्या की और अपने एक एक सिर काटकर हवन में चढ़ाने लगा। उस समय जब दसवां सिर काटने लगा तब शिवजी ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसके सभी सिर दोबारा उसे देकर कहा था वर मांगो। उस समय रावण ने कहा मैं आपके शिवलिंग स्वरूप को लंका में स्थापित करना चाहता हूं। तब शिवजी ने अपने शिवलिंग स्वरूप दो चिन्ह दिए और कहा कि इन्हें भूमि पर मत रखना अन्यथा ये वहीं स्थापित हो जाएंगे। उस दौरान रावण उन दोनों शिवलिंग को लेकर चलने लगा लेकिन उस समय रास्ते में गौकर्ण क्षेत्र में एक जगह उसे लघुशंका लगी. उस समय उसने बैजु नाम के एक गड़रिये को दोनों शिवलिंग पकड़ने को कहा और साथ ही यह भी कहा कि इसे किसी भी हालत में नीचे मत रखना। उस समय भगवान शिव ने अपनी माया से उन दोनों का वजन बढ़ा दिया और गड़रिये ने दोनों को नीचे रख दिया. इसके बाद दोनों शिवलिंग वहीं स्थापित हो गए। आज जिस मंजूषा में रावण के दोनों शिवलिंग रखे हैं उस मंजूषा के सामने जो शिवलिंग है वह चन्द्रभाल के नाम से और जो पीठ की ओर है वह बैजनाथ के नाम से प्रसिद्ध है.
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