सप्तऋषियों की याद में प्रति वर्ष भादो माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ऋषि पंचमी के रूप में मनाया जाता है. इस दिन व्रत रखा जाता है और ऐसी मान्यता है कि यह व्रत जाने-अनजाने में हुए पापों से छुटकारा दिलाता है. इस दिन कई लोग पवित्र नदियों में स्नान भी करते हैं. आइए आगे जानते हैं ऋषि पंचमी व्रत की कथा के बारे में...
ऋषि पंचमी व्रत की कथा...
इसकी कथा यह से शुरू होती है कि विदर्भ नामक देश में एक सदाचारी ब्राह्मण निवास करता था और उसकी पत्नी का नाम सुशीला था, जो कि बड़ी ही पतिव्रता थी. इस ब्राह्मण दंपति की दो संतान एक बेटा और एक बेटी थी. जब बेटी विवाह योग्य हुई तब उसका विवाह कर दिया गया. हालांकि कुछ दिनों में ही उसके पति ने देह त्याग दी. इससे दंपति को काफी दुःख पहुंचा और फिर वे अपनी बेटी के साथ गंगा के किनारे कुटिया बनाकर निवास करने लगे. एक दिन कुटिया में जब ब्राह्मण की विधवा बेटी विश्राम कर रही थी, उस समय उसके शरीर पर कीड़ें पड़ने लगे. कन्या ने यह बात माँ को बताई. इसके बाद महिला ने अपने पति से यह सब कहा और उससे पूछा कि प्राणनाथ! हमारी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है?
ब्राह्मण ने इसका जवाब ढूंढना चाहा. समाधि द्वारा इस घटना के बारे में ब्राह्मण को जानकारी मिली. जहां यह बात सामने निकलर आई कि उनकी पुत्री पिछले जन्म में भी ब्राह्मण थी और इस दौरान उसने रजस्वला होते ही बर्तन छू लिए थे. लड़की ने इस जन्म में भी देखा-देखी के कारण ऋषि पंचमी का व्रत नहीं रखा और इस कारण उसके शरीर में कीड़े पड़ गए. हिन्दू धर्म के शास्त्रों में इस बात की जानकारी मिलती है कि जब महिला मासिक धर्म से गुजर रही होती है और वो इसके विरुद्ध जाती है तो पहले दिन चाण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तथा तीसरे दिन धोबिन की भांति वह अपवित्र हो जाती है. वह चौथे दिन स्नान आदि के बाद ही शुद्ध होती है. आगे कथा में बताया गया कि लड़की यदि शुद्ध और सच्चे मन से ऋषि पंचमी का व्रत रखें तो वह सारे दुखों से मुक्त हो जाएगी. इसके बाद पिता के कहने पर ब्राह्मण विधवा लड़की ने ऋषि पंचमी का व्रत रखा और विधिवत रूप से पूजन किया.
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