धर्म, मानवता, सिद्धांतों के लिए शहीद होने वाले गुरु तेग बहादुर जी सिख धर्म में विशेष महत्व रखते है, इन्हें "हिन्द-दी-चादर" के नाम से भी जाना जाता है. कश्मीरी पंडितों के लिए शहीद होने वाले गुरु तेज बहादुर जी का जन्म 1 अप्रैल 1621 को अमृतसर नगर में पिता छठे गुरु श्री हरगोविंद साहिब एवं माता नानकी के घर हुआ था. बचपन से ही गुरु तेग बहादुर अपना अधिक समय ध्यान में लीन रहकर बिताते थे, वह अमृतसर में जन्मे थे और गुरु हरगोबिंद साहिब के सबसे छोटे बेटे थे. गुरु हर किशन साहिब के निधन होने से पहले उन्होंने अगले गुरु की पहचान बताई थी कि वह बाबा बाकल होंगे और गुरु तेग बहादुर बाकल में ही रहते थे.
गुरु तेगबहादुर जी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में भी गए, जहाँ उन्होंने आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए रचनात्मक कार्य किए,आध्यात्मिकता, धर्म का ज्ञान बाँटा, रूढ़ियों, अंधविश्वासों की आलोचना कर नये आदर्श स्थापित किए. उस समय भारत में औरंगज़ेब द्वारा जबरदस्ती इस्लाम में धर्मान्तरण करवाने का आतंक जोरों पर था. तब गुरूजी ने औरंगज़ेब से त्रस्त हिन्दुओं को बचाने के लिए औरंगज़ेब से बात करने का मन बनाया. गुरुजी ने औरंगजेब से कहा कि यदि तुम जबरदस्ती लोगों से इस्लाम धर्म ग्रहण करवाओगे तो तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो क्योंकि इस्लाम धर्म यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर जुल्म करके मुस्लिम बनाया जाए.
औरंगजेब यह सुनकर आगबबूला हो उठा. उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर का शीश काटने का हुक्म दिया, तब 11 नवम्बर 1675 को गुरु तेगबहादुर ने हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया. गुरु तेगबहादुर की याद में उनके शहीदी स्थल पर गुरुद्वारा बना है, जिसका नाम गुरुद्वारा शीश गंज साहिब है. गुरु तेगबहादुर जी की बहुत सारी रचनाएं गुरु ग्रंथ साहिब के महला 9 में संग्रहित हैं. गुरुद्वारे के निकट लाल किला, फिरोज शाह कोटला और जामा मस्जिद भी अन्य आकर्षण हैं. गुरु तेगबहादुर जी की शहीदी के बाद उनके बेटे गुरु गोबिन्द राय को गुरु गद्दी पर बिठाया गया, जो सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह जी बने. अपनी आस्था के लिए बलिदान देने वालों के उदाहरणों से तो इतिहास भरा हुआ है, परंतु किसी दूसरे की आस्था की रक्षा के लिए बलिदान देने की एक मात्र मिसाल है गुरु तेग बहादुर सिंह साहब, ऐसे गुरु के चरणों में कोटि कोटि नमन.
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