बालाघाट से जुगल किशोर शर्मा की रिपोर्ट
बालाघाट। संत कंवरराम के वर्सी का आयोजन मुख्यालय के सिंधु भवन में गत दिवस को किया गया। वर्सी महोत्सव पर प्रातः 11 बजे, समाज के रमेश भाई के घर से गुरूग्रंथ साहिब जी का सिंधु भवन में आगमन हुआ। जहां हुकुमनामे की सेवा तत्पश्चात कीर्तन, 6 पोड़ी अनंद साहेब अरदास के बाद लंगर का आयोजन किया गया।
इसी दिन शाम को संत कंवराम साहिब और भगवान झूलेलाल सांई की महाआरती की गई। जिसमें बड़ी संख्या में सामाजिक बंधुओं ने शामिल होकर पुण्यलाभ अर्जित किया। महाआरती के दौरान मुंबई के उल्लासनगर से बालाघाट पहुंची सिंधी भाषा की सुरो की मल्लिका लता भक्तानी का संगीतमय कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस दौरान नगरपालिका अध्यक्ष श्रीमती भारती सुरजीतसिंह ठाकुर सहित सिंधी समाज के रीढ़ के हड्डी कहे जाने वाले संगठनों मर मंगलानी पूज्य सिंधी पंचायत बालाघाट सिंधु सेना अध्यक्ष संजय लालवानी, आयाराम युवा संगठन अध्यक्ष राजेश बुधवानी, सिंधु युवा महिला अध्यक्ष प्रिय कारडा, मातृशक्ति संगठन अध्यक्ष दिव्या तेजवानी, आयाराम युवा महिला मंडल अध्यक्ष पूजा विधानी, रॉयल ग्रुप लालु छाबड़ा, निरंकारी सेवा मिशन अध्यक्ष प्रकाश खटवानी, प्रेम प्रकाश आश्रम अध्यक्ष राजलदास अमलानी, कुटिया दरबार जयराम वाधवानी, सिंधी महिला मंडल लीना माधवानी, हरे माधव दरबार विनोद कारडा के साथ ही सामाजिक सेवा में तत्पर श्रीमती मुस्कान मंगलानी, विशाल मंगलानी और सुमित मंगलानी का शॉल, श्रीफल एवं मोमेंटो देकर सम्मानित किया गया।
भारतीय सिंधु सभा के अध्यक्ष अमर मंगलानी ने बताया कि संत कंवराम जैसा जैसा संत आज तक सिंधियों में दूसरा पैदा नहीं हुआ। सनातन काल से भारतवर्ष के संत महात्माओ, ऋषि मुनियों योगी और वैराग्यो ने अपने कर्म-धर्म साधना से न केवल श्रृंगार किया बल्कि मानवता के कल्याण के अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किये। जिनमे सिंध समाज के संत कंवरराम भी थे। भारत भूमि और उस पर स्थापित हमारे समाज ने उनका अनुसरण करते हुए सभ्य, संस्कारित एवं सर्वहितकारी जीवन यापन करने के अवसर प्रदान किये। भारत भूमि को संत और संतत्व की ईश्वर प्रदत अनूठी देन हैं। जिसके रहते ही भारत विश्व गुरु के रूप में स्थापित हो सका।
कोषाध्यक्ष अनिल गोपाल मंगलानी ने बताया कि संत कंवर रामजी का जन्म 13 अप्रैल सन् 1885 ईस्वी को बैसाखी के दिन सिंध प्रांत में सक्खर जिले के मीरपुर माथेलो तहसील के जरवार ग्राम में हुआ था। उनके पिता ताराचंद और माता तीर्थ बाई दोनों ही प्रभु भक्ति एवं हरि कीर्तन करके संतोष और सादगी से अपना जीवन व्यतीत करते थे। 1 नवम्बर 1939 को संत कंवराम, अपनी टोली के साथ सक्खर जाने के लिए रुख स्टेशन पहंुचे। हमेशा की तरह डिब्बे में खिड़की के पास यात्रा के लिए बैठे थे, जैसे ही इंजन ने सिटी बजाई कातिलों ने संत पर गोलियां चलाई एक गोली संत कंवरराम के माथे पर जा लगी। जिनके मुख से अंतिम शब्द निकला, हरे राम...था। जिसके बाद से सिंधी समाज अपने संत को याद करने के लिए प्रतिवर्ष उनका वर्सी महोत्सव मनाते आ रहा है।
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