शहीद दिवस: देशभक्ति का दूसरा नाम 'भगत सिंह'

शहीद दिवस: देशभक्ति का दूसरा नाम 'भगत सिंह'
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"बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरुरत होती है" ये शब्द हैं भारत के युवा क्रन्तिकारी शहीद भगत सिंह के, जिन्होंने देश की बहरी हो चुकी जनता को जगाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी.  स्वतन्त्रता की वेदी पर अपने आप को कुर्बान कर उन्होंने भारत में न केवल क्रांति की एक लहर पैदा की, बल्कि अंग्रेजी साम्राज्य के अंत की शुरुआत भी कर दी थी. यही कारण है कि भगत सिंह आज तक अधिकतर भारतीय युवाओं के आदर्श बने हुए हैं और अब तो भगत सिंह का नाम क्रांति का पर्याय बन चुका है.

जलियांवाला बाग़ हत्याकाण्ड से भगत सिंह के अंदर क्रांति की लहर फुट पड़ी थी, उस वक़्त भगत सिंह मात्र 12 वर्ष के थे, लेकिन 1919 में हुए इस हत्याकांड की खबर मिलते ही वे अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये. जिसके बाद क्रांति की राह पर उनका सफर शुरू हो गया.  गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिए रास्ता चुनने लगे. काकोरी कांड में रामप्रसाद बिस्मिल और अश्फाखउल्लाह खान को फांसी देने के बाद तो भगत सिंह इतने उदिग्न हुए कि उन्होंने 1928 में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन". 

भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे वामपंथी विचारधारा पर चलते थे, तथा कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से पूरी तरह प्रभावित थे. यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे. इसी कारण से उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी. भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे, इसीलिए उन्होंने बटुकेश्वर दत्त के साथ 8 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था और साथ लाए पर्चे हवा में उछाल दिए. गिरफ्तार होने के इरादे से आए दोनों क्रांतिकारी अपनी जगह पर खड़े रहे. 

2 साल तक जेल में रहे भगत सिंह लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार जनता तक पहुंचते रहे, 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' नामक लेख उनके लेखन का सबसे चर्चित हिस्सा रहा. इस दौरान उनका अध्ययन और अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ विरोध भी बदस्तूर जारी रहा, उन्होंने अंग्रेज़ सरकार का दिया हुआ अन्न खाने से मना कर दिया और अपने साथियों के साथ 64 दिन तक भूख हड़ताल की, उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्यागे थे. क्रांतिकारियों की भूख हड़ताल और भगत सिंह के विचारों को सुनकर जनता में आक्रोश फैलने लगा, जिससे अंग्रेज़ सरकार घबरा गई और उसने क्रांतिकारियों को फांसी देने की घोषणा की. हालांकि महात्मा गाँधी और भारत के कुछ राजनेता ने भगत सिंह की फांसी माफ़ करवाने की कोशिश की, लेकिन यह दीवाना तो अपने प्राणों को होम करने के लिए आसन जमा चुका था. 

फांसी का समय 24 मार्च 1931 निर्धारित किया गया था, किन्तु सरकार ने जनता की क्रांति के डर से कानून के विरुद्ध जाते हुए 23 मार्च को ही सायंकाल 7:33 बजे उन्हें फांसी दे दी. जेल अधीक्षक जब फांसी लगाने के लिए भगत सिंह को लेने उनकी कोठरी में गए, तो उस समय वे ‘लेनिन का जीवन चरित्र’ पढ़ रहे थे. जेल अधीक्षक ने उनसे कहा, “सरदार जी, फांसी का वक्त हो गया है, आप तैयार हो जाइए .” इस बात पर भगत सिंह ने कहा, “ठहरो, अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है .” जेल अधीक्षक आश्चर्यचकित होकर उन्हें देखता रह गया. भगत सिंह कोई इंसान नहीं थे, जो इस दुनिया को छोड़ कर चले गए, वो एक विचार थे, एक ऐसा विचार जो सदियों तक लोगों में देशभक्ति का जज्बा फूंकता रहेगा, क्योंकि विचार कभी मरते नहीं.  

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