पुण्यतिथि विशेष: माता काली के अनन्य भक्त और मानवता के सच्चे पुजारी श्रीरामकृष्ण परमहंस

पुण्यतिथि विशेष: माता काली के अनन्य भक्त और मानवता के सच्चे पुजारी श्रीरामकृष्ण परमहंस
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भारत की पवित्र भूमी  पर अवतरित हुए महान संत और विचारक और स्वामी विवेकानंद के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं. हिन्दू कैलेंडर के हिसाब से फाल्गुन महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को हुआ था संवत 1892 में, अंग्रेजी तारीख के हिसाब से ये 18 फरवरी 1836 की तारीख थी. उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया, स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे, साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं, वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं.

हिन्दू धर्म में परमहंस की उपाधि उसे दी जाती है, जो समाधि की अंतिम अवस्था में होता है, रामकृष्ण परमहंस ने दुनिया के सभी धर्मों के अनुसार साधना करके उस परम तत्व को महसूस किया था, उनमें कई तरह की सिद्धियां थीं लेकिन वे सिद्धियों के पार चले गए थे. रामकृष्ण छोटी कहानियों के माध्यम से लोगों को शिक्षा देते थे, कलकत्ता के बुद्धिजीवियों पर उनके विचारों ने ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा था, हांलाकि उनकी शिक्षायें आधुनिकता और राष्ट्र के आज़ादी के बारे में नहीं थी, उनके आध्यात्मिक आंदोलन ने परोक्ष रूप से देश में राष्ट्रवाद की भावना बढ़ने का काम किया क्योंकि उनकी शिक्षा जातिवाद एवं धार्मिक पक्षपात को नकारती हैं, रामकृष्ण के अनुसार ही मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य हैं. रामकृष्ण कहते थे की कामिनी -कंचन ईश्वर प्राप्ति के सबसे बड़े बाधक हैं. 

माता भद्रकाली के अनंत भक्त श्रीरामकृष्ण अपने अंतिम समय में समाधी में रत रहने लगे थे, जिसकारण उनका स्वास्थ्य भी क्षीण पड़ने लगा था, जब उनके शिष्य उनके स्वास्थ्य पर ध्यान देने के लिए कहते, तो परमहंस अपने शिष्यों के इस प्रेम पर बस मुस्कुरा देते. वे परमहंस ही थे, जिन्होंने एक अबोध बालक नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बनाया और उनका मार्गदर्शन किया. अंत में उनकी हालत बिगड़ने लगी, डॉक्टर ने उन्हें गले के कैंसर के कारण बोलने के लिए मना कर दिया था, लेकिन इसे भी परमहंस ने मुस्कुरा कर टाल दिया. परमहंस की इच्छा न होने पर भी उनके परमशिष्य विवेकानंद उनका इलाज करते रहे, किन्तु परमहंस की इच्छा तो पंचतत्व में विलीन होने की थी, आखिरकार 16 अगस्त 1866 को उन्होंने महासमाधि द्वारा देहत्याग कर दिया. ऐसे निष्काम और निस्वार्थ ईश्वरभक्त को उनकी पुण्यतिथि पर न्यूजट्रैक परिवार का शत कोटि नमन.  

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