आप सभी को बता दें कि फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को माता सीता अष्टमी यानी जानकी जयंती मनाई जाती है. वहीं इस साल जानकी जयंती 25 और 26 फरवरी को मनाई जा रही है. ऐसे में इस दिन पूजा-पाठ और व्रत करने का विधान भी माना जाता है और इस दिन पूरे विधि-विधान से सीता माता की पूजा करने से सभी मनोकामना पूर्ण हो जाती है. ऐसे में आज हम आपको वह अनसुनी कथा सुनाने जा रहे हैं जो आप सभी ने शायद ही सुनी होगी. इस कथा से आपको पता चलेगा कि माता सीता को लंका में हनुमानजी कैसे पहचान पाए थे. आइए जानते हैं कथा.
कथा - सीताजी से बिछड़कर भगवान राम दु:खी हुए और लक्ष्मण सहित उनकी वन-वन खोज करते जटायु तक पहुंचे. जटायु ने उन्हें सीताजी को रावण दक्षिण दिशा की ओर लिये जाने की सूचना देकर प्राण त्याग दिया. राम जटायु का अंतिम संस्कार कर लक्ष्मण सहित दक्षिण दिशा में चले. आगे चलते वे दोनों हनुमानजी से मिले जो उन्हें ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित अपने राजा सुग्रीव से मिलाया. रामजी संग मैत्री के बाद सुग्रीव ने सीताजी के खोज में चारों ओर वानरसेना की टुकड़ियां भेजीं. वानर राजकुमार अंगद की नेतृत्व में दक्षिण की ओर गई टुकड़ी में हनुमान, नील, जामवंत प्रमुख थे और वे दक्षिण स्थित सागर तट पहुंचे. तटपर उन्हें जटायु का भाई सम्पाति मिला जिसने उन्हें सूचना दी कि सीता लंका स्थित एक वाटिका में है.
हनुमानजी समुद्र लांघकर लंका पहुंचे, लंकिनी को परास्त कर नगर में प्रवेश किया. वहां सभी भवन और अंतःपुर में सीता माता को न पाकर वे अत्यंत दुःखी हुए. अपने प्रभु श्रीरामजी को स्मरण व नमन कर अशोकवाटिका पहुंचे. वहां ‘धुएं के बीच चिंगारी’ की तरह राक्षसियों के बीच एक तेजस्विनी स्वरूपा को देख सीताजी को पहचाना और हर्षित हुए. उसी समय रावण वहां पहुंचा और सीता से विवाह का प्रस्ताव किया. सीता ने घास के एक टुकड़े को अपने और रावण के बीच रखा और कहा “हे रावण! सूरज और किरण की तरह राम-सीता अभिन्न है. राम व लक्ष्मण की अनुपस्थिति में मेरा अपहरण कर तुमने अपनी कायरता का परिचय और राक्षस जाति के विनाश को आमंत्रण दिया है. रघुवंशीयों की वीरता से अपरचित होकर तुमने ऐसा दुस्साहस किया है. तुम्हारे श्रीरामजी की शरण में जाना इस विनाश से बचने का एक मात्र उपाय है. अन्यथा लंका का विनाश निश्चित है. इससे निराश रावण ने राम को लंका आकर सीता को मुक्त करने को दो माह की अवधि दी. रावण के लौटने पर सीताजी बहुत दु:खी हुई. त्रिजटा राक्षसी ने अपने सपने के बारे में बताते हुए धीरज दिया की श्रीरामजी रावण पर विजय पाकर उन्हें अवश्य मुक्त करेंगे. उसके जाने के बाद हनुमान सीताजी के दर्शन कर अपने लंका आने का कारण बताते हैं. सीताजी राम व लक्ष्मण की कुशलता पर विचारण करती है. श्रीरामजी की मुद्रिका देकर हनुमान कहते हैं कि वे माता सीता को अपने साथ श्रीरामजी के पास लिये चलते हैं. सीताजी हनुमान को समझाती है कि यह अनुचित है. रावण ने उनका हरण कर रघुकुल का अपमान किया है.
अत: लंका से उन्हें मुक्त करना श्रीरामजी का कर्तव्य है. विशेषतः रावण के दो माह की अवधी का श्रीरामजी को स्मरण कराने की विनती करती हैं. हनुमानजी ने रावण को अपनी दुस्साहस के परिणाम की चेतावनी दी और लंका जलाया. माता सीता से चूड़ामणि व अपनी यात्रा की अनुमति लिए चले. सागरतट स्थित अंगद व वानरसेना लिए श्रीरामजी के पास पहुंचे. माता सीता की चूड़ामणि दिया और अपनी लंका यात्रा की सारी कहानी सुनाई. इसके बाद राम व लक्ष्मण सहित सारी वानरसेना युद्ध के लिए तैयार हुई.
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