जब इस धरती पर भगवान का वास था उस समय काफी सारी प्रथाएं प्रचलित थीं जिनका उल्लेख हमें अब सिर्फ ग्रंथों में ही मिलता है आज हम आपसे एक ऐसी ही प्रथा के बारे में चर्चा करने वाले है जो उस समय काफी महत्वपूर्ण थी. हिन्दू धर्म के आधार पर श्रापों कि बहुत अधिक मान्यता थी इन श्रापों से बड़े से बड़े देवतागण भी वंचित नहीं रहे तथा यह श्राप जिस किसी को भी लगता है उसे उसके फल स्वरुप परिणाम मिल ही जाता है, प्राचीनकाल में श्राप ही एक ऐसा वचन है जिसे केवल ऋषि मुनि, देवी-देवता, या फिर ऐसे मनुष्य जिन्होंने कभी पाप न किया हो जिन्होंने योग तपस्या से अपनी सात्विक इन्द्रियाँ जाग्रत कि हो, ऐसे लोग श्राप देने के अधिकारी होते है. आज हम कुछ ऐसे ही श्रापों के बारे में बात करेंगे जिन्हें आज भी याद किया जाता है-
महाभारत में युद्ध के बाद गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया था कि जिस प्रकार पांडव और कौरव आपसी फूट के कारण नष्ट हुए थे ठीक उसी प्रकार आज से छत्तीसवें वर्ष तुम भी अपने बंधू-बंधवो का वध करोगे.
महाभारत में युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने शोक में आकर (दुखी होकर) पूरी स्त्री जाती को श्राप दिया था कि वे कोई भी बात हो किसी से छिपा नहीं पाएंगी और यह श्राप आज भी पूरी स्त्री जाती को लगा हुआ है.
महाभारत में युद्ध से पहले उर्वशी ने अर्जुन को श्राप दिया था कि वह नपुंशक हो जाएगा और उसे स्त्रियों में नर्तक बनकर रहना पड़ेगा.
राजा अनरण्य और रावण के बीच युद्ध हुआ था उस युद्ध में राजा अनरण्य कि मृत्यु हो गयी थी राजा अनरण्य मरने से पहले रावण को श्राप दिया था रघुवंशी ही तेरी मौत का कारण बनेगा.
तुलसी ने भगवान गणेश को श्राप दिया था कि उनका विवाह उनके इच्छा अनुसार नहीं होगा.
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