रमज़ान के महीने में मुस्लिम धर्म के लोग रोज़ा रखते है और ईद के मौके पर सभी लोग अपना रोज़ा खोलकर खुशियां मनाते है. यूं तो आमतौर पर ईद के चाँद का दीदार करने के बाद ही रोज़ा खोला जाता है. लेकिन आज हम आपको एक ऐसी जगह के बारे में बता रहे है जहां चाँद को देखने के बाद नहीं बल्कि तोप के चलने के बाद रोज़ा खोला जाता है. जी हाँ... जब तक यहाँ के लोग तोप का धमाका नहीं सुनते है तब तक उनका रोज़ा नहीं खुलता है.
ये जगह है मध्यप्रदेश का रायसेन जिला जहां आज तक रमज़ान की बरसो पुरानी अनूठी परंपरा को निभाया जा रहा है. ये परंपरा रायसेन के साथ-साथ भोपाल और सीहोर में भी निभाई जाती थी लेकिन धीरे-धीरे यहाँ पर ये परंपरा बंद हो गई है. शुरुआती दौर में बड़ी तोप से धमाका किया जाता था लेकिन फिर किले की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए छोटी तोप का इस्तेमाल किया जाने लगा. इसके साथ ही तोप के कारण किले में कुछ नुक्सान ना हो इसलिए अब धमाका करने की जगह भी बदल दी.
इस परंपरा की शुरुआत 18वीं सदी में हुई थी. उस समय आर्मी की तोपों से धमाका किया जाता था और बाकि समय में शहर के काज़ी इसकी देखभाल करते थे. आज के समय में इस तोप को चलाने के लिए लाइसेंस जारी किया जाता है. ये लाइसेंस सरकार एक महीने के लिए जारी करती है. इस तोप को चलाने के लिए एक महीने का खर्चा करीबन 40,000 रूपए आता है और निगम इसके खर्चे के लिए 50,000 देती है.
तोप को सँभालने की जिम्मेदारी सखावत उल्लाह की है और वो रोज़ा खुलने से आधे घंटे पहले उस पहाड़ी पर पहुंच जाते है जहां पर तोप रखी है. तब तक सखावत उल्लाह तोप में बारूद भरते है और जब निचे मस्जिद से इशारा मिल जाता है तो वो धमाका कर देते है. जैसे ही स्थानीय लोग धमाके की आवाज सुनते है वो सेहरी खत्म कर रोज़ा खोल लेते है.
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