श्रीमद् भगवद्गीता में कई ऐसी बातें बताई गई है जो अगर जीवन में अपना ली जाए तो कई तरह के कष्ट कट सकते हैं। श्रीमद् भगवद्गीता में बताया गया है कि 'ज्ञान' से बड़ा 'कर्म' है। जी हाँ और आज हम उसी क्षण के बारे में बताने जा रहे हैं। श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान की अपेक्षा कर्म मार्ग पर चलने का उपदेश देते हैं क्योंकि कर्म लोक कल्याण के साथ आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले पथिक को प्रभु की प्राप्ति भी करा देता है। वहीं इस परम योग का उपदेश प्रारंभ करने से पूर्व श्रीकृष्ण कहते हैं, ''हे अर्जुन! अब मैं तुमको वह योग बताता हूं जिस पर चलकर तुम सारे कर्म बंधनों को तोड़ दोगे और इसकी विशेषता यह है कि इसका थोड़ा-सा भी अनुशीलन महान भय से बचा लेता है।
''महान भय अध्यात्म में तीन प्रकार के बताए गए हैं-आधिभौतिक, आध्यात्मिक, अधिदैविक। कर्मयोगी इनसे परे चला जाता है। मनुष्य को यही तीन प्रकार के दुख हैं, जिनकी शांति का यत्न सदैव से किया जाता रहा है। प्रवृत्ति मार्ग से कर्म द्वारा ही इनसे मुक्त होने का मार्ग बताया है।'' ''कर्म द्वारा माया और प्रभु दोनों को प्राप्त किया जा सकता है। कर्मयोग यह मानता है कि कर्म ज्ञान का विरोधी नहीं है, कर्म द्वारा व्यक्ति ज्ञान की तरफ उन्मुख हो सकता है।'' वहीं आगे श्री कृष्ण बलपूर्वक कहते हैं, ''ज्ञानमार्ग की सिद्धि भी बिना कर्म के संभव नहीं है।'' संन्यास प्रधान योगियों का यह मानना है कि कर्म का त्याग निष्क्रियता है, एक बहुत बड़ा भ्रम था। कर्मयोग बताता है कि निष्क्रियता क्या है ? यह एक स्वभाव है। कर्म करते हुए यह अनुभव करना कि कर्म मैं नहीं कर रहा हूं, मैं कर्ता नहीं हूं। कर्ता केवल परमात्मा है, मैं तो केवल माध्यम हूं। निष्क्रियता आत्मा का स्वभाव है।
गीता संकल्पों का त्याग करने का उपदेश देती है। कर्मयोगी वही है जो कर्म करता है। बुद्धिजीवियों ने कर्म को संन्यास धर्म का साधन माना है वहीं आधुनिक व्याख्याकारों ने कर्म और ज्ञान को एक-दूसरे से स्वतंत्र माना है। जी दरअसल गीता का कहना है कि प्रकृति ही सारे कर्मों का संपादन करती है, पुरुष केवल साक्षी है। कर्म पुरुष नहीं करता वह तो उसका अज्ञान है, जब वह स्वयं को कर्ता समझने लगता है। वास्तव में निष्क्रियता पुरुषों का स्वभाव है जिसे वह कर्म द्वारा प्राप्त कर सकता है।
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