इतिहास और कहानी लेखन के बारे आम धारणा है कि इतिहास में केवल नाम और तारीख सही होता है, शेष अधिकतर झूठ होता है, परन्तु कहानी के बारे में ठीक इसके उलट अवधारणा है कि कहानी में मात्र नाम और तारीख काल्पनिक होते है, शेष सब सही होता है। कहानी सफेद बाघ की... एक ऐसे वन्य जीव की कहानी है जिसके इतिहास में न काल्पनिकता है, और कहानी में न लेश मात्र झूठ। इतिहास की एक ऐसी सच्चाई जो कहानीपन से दूर सच्चे इतिहास की कहानी बन गई। कहानी है, वन्य जीवों में एक ऐसे बाघ की जो कुदरत का करिश्मा था, सबसे अलग, सबसे नायाब, सफेद बाघ की दो सौ सफेद संताने देश और विदेश में झंडा उठाए रीवा और उसके संरक्षक का नाम रोशन कर रही हैं।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक जयराम शुक्ल ने इतिहास के इस सच को रोचक कहानी शैली में लिखकर कहानी को नया रूप दिया है। लेखक ने न सिर्फ गजेटियर, संग्रहालयों का सहारा लेकर सफेद बाघ की कहानी का इतिहास रचा है, बल्कि उस गांव उस दरार जिसमें बाघ छिपा था, उन लोगों से जो हांका में शामिल थे, जो अन्त तक जू कीपर रहा, वहां जाकर मिल-बात कर, यथार्थ को धरातल पर लिखा है। 27 मई 1964 की वह ऐतिहासिक तारीख जिस दिन बस्तुआ मड़वास रेंज सीधी जिले के देवा गांव दरार (मांद) में छिपे सफेद शावक बाघ को रीवा के अंतिम महाराज मार्तंड सिंह ने पकड़वाया। उन्होंने उसका नाम मोहन रखा। मोहन के आकर्षण से अभिभूत होकर महाराज ने शिकार करना छोड़ दिया।
आदिम युग में कभी शिकार खाने के लिए किए जाते थे। बाघ का शिकार राजाओं की वीरता और शौर्य के छद्म से जुड़ा शौक था, जो मेहमानों को दिखाने के लिए होता था। मचान पर चढक़र बाघ मारने को किस वीरता का खेल कहेंगे। उनके पूर्वजों में रघुराज सिंह ने 39, वेंकटरमण सिंह ने 558, गुलाब सिंह ने 619 और स्वयं उन्होंने ८५ बाघों के शिकार किए। विंध्य का यह अंचल बाघवाड़ी जो कालांतर में बघवार कहलाया। मोहन, जीवन के अंतिम दिनों तक गोविन्दगढ़ (रीवा) महाराज के किले बाघवाड़े में रहा। 1969 में उसकी मृत्यु हुई। शाही सम्मान के साथ उसे दफनाया गया।
सफेद बाघ मोहन की कहानी पढ़ते हुए अनेक आंचलिक जानकारियों के साथ पाठक यात्रा, वृत्तांत का आनंद प्राप्त करेंगे। 1976 के बाद, सफेद बाघ की कहानी पोथी-पन्नों में रह गई। यहां बहाघ की दहाड़े गूंजती थी, वहां मरघट सा सन्नाटा था। बाघ देखने के लिए गोविन्दगढ़ (रीवा) आना पर्यटकों की सूची से गायब हो गया। इसकी पीड़ा रीवावासियों को थी। अनेक छुट-पुट प्रयास भी हुए परन्तु मन और संकल्प की दृढ़ता से किसी ने सार्थक कदम नहीं उठाए।
रीवा के विधायक एवं मप्र शासन के जनसम्पर्क और ऊर्जा मंत्री राजेन्द्र शुक्ल रीवा की उस विश्व स्तरीय पहचान को वापस लाने का न सिर्फ बीड़ा उठाया बल्कि बाघ की वापसी के लिए अथक परिश्रम कर रीवा, भोपाल, दिल्ली को एक करके इस भीष्म संकल्प को पूरा किया। इस भगीरथ प्रयास में मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह उनके मिशन में सहभागी रहे। पुस्तक में लेखक ने यह भी बताया है कि मोहन गोविन्दगढ़ के किले की मांद से एक बार भागकर मुकुंदपुर के जंगल में छिपा था, जहां से उने पुन: गोविन्दगढ़ लाया गया था। इसे यदि आगत का संदेश कहें कि संयोग, मुकुंदपुर का यह वन क्षेत्र आने वाले वर्षों में सफेद बाघों का प्रजनन क्षेत्र बनकर मोहन (परदादा) की संतति का गवाह बनेगा। मोहन को पकड़वाने पनाह देने, पालने और विश्व स्तरीय पहचान देने में जो मान-सम्मान रीवा नरेश मार्तण्ड सिंह को प्राप्त है, उस मोहन के वंशजों की वापसी का श्रेय अकुंठ भाव से राजेन्द्र शुक्ल, मंत्री मप्र शासन को भी देना होगा। टाइगर सफारी का निर्माण और उसकी पूरी परिकल्पना को साकार रूप देने में उन्होंने अपनी सूपर्ण ऊर्जा झोंक दी। उन्होंने अपने एक लेख में कहा था कि सफेद बाघ मुझे बचपन से ही आकर्षित करता था, जब किसी विदेशी को वे रीवा में सफेद बाघ को देखने के लिए आते देखते थे तो उन्हें अतीव आनंद मिलता था।
चालीस वर्षों बाद सफेद बाघ को मनुष्य निर्मित घर और प्राकृतिक पर्यावास में देखकर विंध्य रोमांचित और हर्षित है। सफेद मोहन और उसकी पहली संगिनी सामान्य बाघिन बेगम से सफेद बाघ नहीं जन्में। मोहन और राधा के समागम से पहली बार ३० अक्टूबर ५८ को चार सफेद बाघों का जन्म हुआ। आगे चलकर इस जोड़े से १३ सफेद और ९ सामान्य रंग के बाघ शावकों ने जन्म लिया। उन्नीस वर्षों में मोहन ३४ शावकों का िपता बना जिसके 21 सफेद थे। लेखक ने राधा-मोहन की संतानों ने विश्वभर में कुल 144 सफेद और 56 सामान्य बाघों को जन्म दिया, जो विश्व रिकार्ड है।
लेखक ने पुलबा बैरिया को भी बहुत आदर से सचित्र याद किया है जिसने मोहन की परवरिश की। गोविन्दगढ़ के इस अदने से व्यक्ति ने मोहन से पूरी संजीदगी से सामंजस्य स्थापित किया। उसे तीन बार सर्वोत्कृष्ट जू-कीपर का सम्मान भी मिला। किसी वस्तु, सामान की भेंट सामान्य प्रक्रिया है, परंतु किसी बाघ को सम्मान स्वरूप भेट करना कितना विचित्र अहसास है। पहली बार 1963 में महाराज रीवा और भारत सरकार के बीच हुए अनुबंध के अनुसार मोहन और सुकेशी से जन्मे शावक राजा और रानी 26 जून 63 को दिल्ली प्राणी उद्यान पहुंचे जिनका स्वागत वित्तमंत्री मोरारजी देसाई और कृषि राज्यमंत्री राम सुभन सिंह ने किया। पशुओं और पालतू जानवरों का पालना और बेचना एक सामान्य व्यवसाय है लेकिन कितना अजीब लगता है बाघ को पालना और बेचना।
पुस्तक में यह भी जानकारी दी गई है कि अमेरिकी बच्चों को तोहफा देने के लिए रेडियो कारपोरेशन आफ अमेरिका ने महाराजा मार्तण्ड सिंह से मोहिनी नामक सफेद बाघिन को दस हजार डॉलर में खरीदा था, जिसकी अगवानी राष्ट्रपति आइजन हावर ने की थी। बाद में मोहिनी का जोड़ा बनाने के लिए अहमदाबाद राष्ट्रीय उद्यान से सैमसन को अमेरिका ने खरीदा। मोहन के पूरे परिवार की कहानी उसके वंश-वृक्ष के साथ उपलब्ध कराकर लेखक ने एक मुकम्मल सच्चा इतिहास लेखन किया है जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं।
सफेद बाघ की कहानी का इतिहास बिना महाराज मार्तण्ड सिंह और मोहन के अधूरा है और सफेद बाघिन विंध्य की मुकुंदपुर के मांद में आना राजेन्द्र शुक्ल मंत्री, मप्र शासन के नाम इतिहास के एक गवाही के रूप में दर्ज होकर इतिहास बन गया। छोटे-छोटे शीर्षक देकर सफेद बाघ की आदि से अब तक की कहानी हिंदी और अंग्रेजी में लिखी गई है। आकर्षक और सुन्दर चित्र पुस्तक को दर्शनीय और पठनीय बनाते हैं। उन कुछ घरों के भित्ति चित्र भी लेखक ने दिए है जिनमें बाघ के चित्र हैं, जिन गांवों में 'बघौत की पूजा होती है। कभी कहा जाता था कि श्याम देश (आज का म्यांमार) में बहुतायत सफेद हाथी बहुतायत में पाए जाते हैं।
इन्द्र का हाथी ऐरावत जो समुद्र मंथन से निकला था, वह भी सफेद था। सामान्य सिंहो, बाघों की चर्चा साहित्य और लोक में खूब होती है परन्तु वर्तमान साहित्य और वन्य जीवों में जिस अजूबे की चर्चा होगी उसमें मोहन होगा, महाराज मार्तण्ड सिंह होंगे, विंध्य होगा, पनखोरा गांव होगा, गोविन्दगढ़, मुकुंदपुर सफारी होगा, उसी के बरक्स एक हठी, संकल्पबद्ध मंत्री राजेन्द्र शुक्ल का भी नाम होगा और होगी कहानी सफेद बाघ की .... A Tale of White Tiger पुस्तक की। श्वेत हाथी, श्वेत कबूतर श्वेत हंस, श्वेत परिधान यदि शुभ दर्शनों और प्रतीक रूप में भारतीय संस्कृति में समादृत हैं तो सफेद बाघ शांति और सद्भावना के रूप में क्यों नहीं ?
"चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र"