नई दिल्ली: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जावेद गुलाम नबी शेख को जमानत दे दी, जो एक आरोपी है, जिसे फरवरी 2020 में मुंबई हवाई अड्डे पर 23.86 लाख रुपये की नकली मुद्रा के साथ गिरफ्तार किया गया था। न्यायालय के इस निर्णय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा जमानत से इनकार के आदेश को पलट दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जमानत रोकने को सजा के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।
मामले की शुरूआत में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) द्वारा जांच की गई, जिसमें पता चला कि जावेद को दुबई में एक भगोड़े से नकली मुद्रा मिली थी, जहां इसे मूल रूप से पाकिस्तान से तस्करी करके लाया गया था। गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत आरोपित, जावेद ने मुकदमे की प्रतीक्षा में चार साल हिरासत में बिताए थे। अपने आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, अपराध चाहे कितना भी गंभीर हो, जब तक आरोप सिद्ध नहीं होता, तब तक निर्दोषता का अनुमान सर्वोपरि है। अदालत ने देरी के कारण जावेद के मामले में अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) के उल्लंघन का हवाला देते हुए शीघ्र सुनवाई के संवैधानिक अधिकार को रेखांकित किया।
सर्वोच्च न्यायालय ने ये भी कहा कि "अपराधी पैदा नहीं होते बल्कि बनाए जाते हैं। हर किसी में मानवीय क्षमता अच्छी होती है और इसलिए, किसी भी अपराधी को कभी भी सुधार से परे न समझें।" न्यायाधीशों ने दोहराया कि प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उसके पिछले कार्य कुछ भी हों, सुधार की संभावना और निष्पक्ष कानूनी प्रक्रिया का हकदार है। बता दें कि, नए आपराधिक कानूनों में नकली नोटों के निर्माण, भंडारण और उसके परिचालन को आतंकवाद की श्रेणी में रखा गया है, क्योंकि इससे देश की आर्थिक सुरक्षा को खतरा पहुँचता है, साथ ही इन नकली मुद्राओं का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों के लिए भी होता है। बहरहाल, शीर्ष अदालत ने आरोपी जावेद को जमानत दे दी है
यह फैसला अप्रैल 2022 में दिए गए एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले के बाद आया है, जब सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार और हत्या के दोषी मोहम्मद फिरोज की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था। उस समय भी कोर्ट ने इसी तरह की टिप्पणी की थी, "संत और पापी के बीच एकमात्र अंतर यह है कि हर संत का एक अतीत होता है और हर पापी का एक भविष्य होता है।"
आलोचक इस बात पर सवाल उठा सकते हैं कि क्या जाली मुद्रा जैसे गंभीर अपराध में शामिल किसी आरोपी को जमानत देना जनहित और सुरक्षा के साथ मेल खाता है। हालांकि, संवैधानिक अधिकारों, निष्पक्ष सुनवाई के मानदंडों और मुक्ति की संभावना पर सुप्रीम कोर्ट का जोर कानून के ढांचे के भीतर न्याय को बनाए रखने के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है।
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