नई दिल्ली: सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को मुस्लिम पक्ष से सवाल किया है कि जब इस्लाम में नमाज अनिवार्य नहीं है तो मुस्लिम महिलाओं के लिए हिजाब कैसे जरूरी और अनिवार्य हो गया। अदालत ने इस सवाल के लिए मुस्लिम पक्ष के ही तर्कों का हवाला दिया, जिसमें उनकी वकील ने कहा कि समुदाय के लिए इस्लाम के पांच मुख्या सिद्धांतों (नमाज, हज, रोजा, जकात और ईमान) का पालन करना ही अनिवार्य नहीं है।
जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया की बेंच ने कर्नाटक हिजाब विवाद पर सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ता फातमा बुशरा के वकील मोहम्मद निजामुद्दीन पाशा से यह सवाल किया। पाशा ने अदालत में दिए अपनी दलीलों में कहा था कि इस्लाम में अपने अनुयायियों को इस्लाम के पांच सिद्धांतों का पालन करने के लिए विवश करने की कोई बाध्यता नहीं है। इस पर अदालत ने सवाल किया कि, 'अगर अस्थायी दंड के अभाव में मुस्लिमों द्वारा पांच प्रमुख इस्लामी सिद्धांतों का अनिवार्य तौर पर पालन नहीं किया जाता है तो हिजाब को मुस्लिम महिलाओं के लिए अनिवार्य कैसे कहा जा सकता है।'
पाशा ने अदालत से कहा कि पैगंबर मोहम्मद ने कहा था कि एक महिला का पर्दा उसके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि, 'कुरान पैगंबर के शब्दों का पालन करने के लिए कहता है। एक मुस्लिम लड़की घर से बाहर निकलते वक़्त हिजाब पहनने में यकीन करती है। ऐसे में सरकार धर्म के आधार पर शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश में पक्षपात क्यों करती है? हिजाब में उसके प्रवेश पर प्रतिबंध कैसे लगा सकती है?' अपनी दलील में उन्होंने यह भी कहा कि जब सिख छात्र स्कूलों के अंदर पगड़ी पहनते हैं तो हिजाब पहने मुस्लिम छात्राओं के शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश पर बैन लगाने का मतलब एक ही धार्मिक समुदाय को टारगेट करना होगा।
अदालत ने आगे कहा कि सिख धर्म के पांच 'K' को कानूनों और अदालतों द्वारा जरूरी माना गया है और हिजाब के साथ पगड़ी की तुलना नहीं की जा सकती। पाशा ने दलील दी कि, 'पांच 'K' को अनिवार्य रूप से प्रस्तुत किया गया हो सकता है, मगर पगड़ी को आवश्यक नहीं माना जाता है। सिख धर्म महज 500 साल पुराना है, मगर इस्लाम 1,400 साल पुराना है। इसलिए यदि, शैक्षणिक संस्थानों में 500 वर्ष की धार्मिक प्रथा की अनुमति है, तो 1400 वर्ष पुरानी प्रथा पर प्रतिबंध क्यों लगाया जाए।'
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