चेन्नई: 15 जुलाई को मद्रास उच्च न्यायालय ने तमिलनाडु पुलिस को मुसलमानों के एक कट्टरपंथी गुट का पक्ष लेने के लिए कड़ी फटकार लगाई, जो मुसलमानों के एक अन्य समूह को ढोल और संगीत के साथ मुहर्रम मनाने से रोकने की मांग कर रहा था। दरअसल, थमीम सिंधा मदार ने मद्रास उच्च न्यायालय का रुख किया था, जब तमिलनाडु प्रशासन ने मुसलमानों के एक कट्टरपंथी गुट द्वारा विरोध किए जाने के बाद उन्हें ढोल और संगीत के साथ मुहर्रम मनाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था।
रिपोर्ट के अनुसार, तिरुनेलवेली के एरवाडी कस्बे में सूफी मुस्लिम श्रद्धालु पारंपरिक रूप से मुहर्रम जुलूस ढोल और संगीत के साथ निकालते आ रहे हैं, जिसे संथानाकुडु जुलूस और कुथिराई पंचा के नाम से जाना जाता है। लेकिन, इस बार एक कट्टरपंथी इस्लामिक समूह उनके सामने आ खड़ा हुआ, जो नहीं चाहता था कि वे ढोल और संगीत के साथ मुहर्रम मनाएं। तौहीद जमात नामक इस समूह ने जुलूसों का विरोध करते हुए दावा किया कि मुहर्रम जुलूस के दौरान संगीत बजाने और ढोल बजाने से लोगों पर कुफ्र (पाप) का असर प्रभाव पड़ता है और इस्लाम को ऐसे अनुष्ठानों से मुक्त होकर अपने शुद्ध और मूल रूप में पालन किया जाना चाहिए।
जब तौहीद जमात ने जिला और राज्य प्राधिकारियों से संपर्क किया, तो उन्होंने उनसे मुहर्रम जुलूस के दौरान संगीत बजाने की अनुमति देने से इंकार कर दिया। प्रशासन ने कहा कि, इससे कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा हो सकती है। दरअसल, प्रशासन ने पूरी तरह कट्टरपंथी गुट तौहीद जमात के आगे घुटने टेक दिए, जो क्षेत्र के अन्य मुसलमानों को अपनी परंपरा का पालन करने से रोक रहा था। जबकि, भारत का संविधान सबको अपने त्यौहार मनाने का हक़ देता है, इसमें कोई किसी को रोक नहीं सकता। बता दें कि, मुहर्रम अधिकतर शिया समुदाय द्वारा मनाया जाता है, जबकि तौहीद जमात सुन्नी संगठन है, जिस पर श्रीलंका में बम ब्लास्ट करने के भी आरोप लगे थे। शिया सुन्नी में बैर वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक फैला हुआ है। ईरान और सऊदी अरब में भी इसी मुद्दे पर लड़ाई है। तौहीद जमात भी मुहर्रम में ढोल संगीत को गैर इस्लामी मानता है, और वो इसका विरोध कर रहा था।
हालाँकि, हाई कोर्ट ने प्रशासन को जुलूसों के लिए सुरक्षा उपलब्ध कराने का निर्देश दिया और कहा कि स्थानीय पुलिस ने संथानाकुडु जुलूस और कुथिराई पंचा के लिए अनुमति नहीं देकर गलती की है। पारित आदेश में मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा, "यदि किसी के मौलिक अधिकार खतरे में हैं, तो प्रशासन का कर्तव्य है कि वह अधिकारों को बनाए रखे और अधिकारों के प्रयोग में हस्तक्षेप करने वालों को दबाए। मौलिक अधिकारों को कट्टरपंथी ताकतों पर वरीयता दी जाएगी।"
जस्टिस स्वामीनाथन ने कहा कि, "याचिकाकर्ता और उनके सहयोगियों को अपना धार्मिक जुलूस निकालने का मौलिक अधिकार है। यह अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(बी) और (डी) द्वारा संरक्षित है। याचिकाकर्ता के पूर्वजों ने सदियों से इस अधिकार का प्रयोग किया है। तौहीद जमात को यह हक़ नहीं है कि वो किसी को यह निर्देश दे कि उन्हें त्योहार कैसे मनाना चाहिए। तौहीद जमात को याचिकाकर्ता के समूह को धार्मिक जुलूस निकालने से रोकने का कोई अधिकार नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिला प्रशासन ने कट्टरपंथी तत्वों की धमकियों के आगे झुकना चुना। अगर जिला प्रशासन कानून और व्यवस्था के मुद्दों का हवाला देकर अधिकार के प्रयोग पर रोक लगाने का आसान और आलसी विकल्प अपनाता है, तो यह उनकी नपुंसकता को दर्शाता है।"
न्यायाधीश ने तौहीद जमात से आगे कहा कि यदि उन्हें संथानाकुडु जुलूस और कुथिराई पंच पसंद नहीं है, तो वे चुपचाप घर के अंदर ही रहकर देखे। यह ध्यान देने योग्य है कि तिरुनेलवेली जिले के एरवाडी कस्बे में संत हसन और हुसैन की याद में एक मुस्लिम दरगाह है। इसे एरवाडी दरगाह के नाम से जाना जाता है। इस मस्जिद के अलावा कस्बे में छह अन्य मस्जिदें हैं। उनमें से दो तौहीद जमात के सिद्धांतों का पालन करती हैं। इसके अलावा, यह एरवाडी दरगाह ही है जो ढोल और संगीत के साथ मुहर्रम मनाने की परंपरा का पालन करती रही है। तौहीद जमात अनिवार्य रूप से किसी भी “कुफ्र” के प्रभाव का विरोध करती है और चाहती है कि इस्लाम को उसके शुद्धतम रूप में ही माना जाए।
हाई कोर्ट ने ये भी कहा कि, "धार्मिक विश्वासों और प्रथाओं को एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। धारणाएं अलग-अलग हो सकती हैं। इसीलिए, दार्शनिक विचारों के अलग-अलग स्कूल हैं। बेशक, दो मुख्य संप्रदाय हैं, अर्थात् शिया और सुन्नी, लेकिन ये भी सबकुछ नहीं हैं। भारत की सूफी परंपरा भी समृद्ध और उत्कृष्ट है, वे समन्वयकारी संस्कृति के लिए खड़े हैं। वे रूढ़िवाद के कठोर नियमों से चिपके नहीं रहते। उनका जोर प्रेम और सद्भाव पर अधिक है। जलालुद्दीन रूमी और उनकी रचना "मसनवी" याद आती है। वे सबसे महान दरवेश थे, जो ईश्वर तक पहुँचने के लिए नृत्य करने में विश्वास करते थे। सैकड़ों शास्त्रीय संगीतकार हैं, जो एक ही समय में पवित्र मुसलमान हैं।"
सूफीवाद की प्रशंसा करते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि तौहीद जमात केवल सऊदी अरब में प्रचलित इस्लाम से ही संतुष्ट है। उन्होंने कहा कि "इस्लाम की स्थापना 7वीं शताब्दी में मध्य पूर्व में हुई थी। तब से यह दुनिया के कई हिस्सों में फैल चुका है। तौहीद जमात चाहती है कि सऊदी अरब की तरह हर जगह के मुसलमान इस्लाम का पालन करें। वास्तव में, वे खुद पैगंबर के समय से ही इस्लाम का पालन करना चाहते हैं। वे स्थानीय रंग और चमक हासिल करने की प्रथाओं से सहज नहीं हैं।"
हाई कोर्ट ने आगे कहा कि, "एरवाडी के लोग संगीत, ढोल की थाप और घोड़े और रथ जुलूस में विश्वास करते हैं। उनसे सऊदी अरब के तौर-तरीकों का पालन करने की उम्मीद करना तालिबानी दृष्टिकोण से कम नहीं है।" बता दें कि तमिलनाडु प्रशासन और पुलिस ने न केवल इरवाडी दरगाह को ढोल-नगाड़ों और संगीत के साथ मुहर्रम मनाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया, बल्कि अदालत में यह भी दलील दी कि दरगाह की याचिका खारिज की जानी चाहिए और अनुमति न देने के प्रशासन के फैसले को पलटा नहीं जाना चाहिए।
राजस्व प्राधिकारियों की ओर से उपस्थित विशेष सरकारी अधिवक्ता ने दलील दी कि तौहीद जमात के अनुयायियों की ओर से कड़ा विरोध किया गया है और पिछले वर्षों के दौरान याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर रिट याचिकाएं खारिज कर दी गई थीं, इसलिए इसमें कोई बदलाव करने की आवश्यकता नहीं है। तमिलनाडु पुलिस की ओर से पेश सरकारी वकील ने हाई कोर्ट में आगे कहा कि, ''मुहर्रम का त्यौहार कई दशकों तक बिना किसी बाधा या आपत्ति के मनाया जाता रहा है। समुदाय और धर्म से ऊपर उठकर आम लोग इसमें हिस्सा लेते थे। केवल वर्ष 2011 में तौहीद समूह द्वारा आपत्ति जताई गई थी। कुछ अप्रिय घटनाएं हुईं और FIR दर्ज की गईं। लगभग हर साल शांति समिति की बैठक बुलाई गई। यह निर्णय लिया गया कि “कुथिराई पंचा”, “संथानाकुडु जुलूस” आदि आपत्तिजनक कार्यक्रम आयोजित नहीं किए जाएंगे। केवल चार कार्यक्रम आयोजित करने पर सहमति बनी। पुलिस उक्त निर्णय के अनुरूप अनुमति दे रही है। वर्ष 2019 में फिर से चार आपराधिक मामले दर्ज किए गए। आज तक, कोई भी आपराधिक मामला लंबित नहीं है। या तो वे बरी हो गए या “तथ्य की गलती” के रूप में बंद कर दिए गए। क्षेत्राधिकार वाली पुलिस ने कहा है कि उच्च न्यायालय द्वारा पारित किए जाने वाले आदेश के आधार पर, वे यह सुनिश्चित करने के लिए सुरक्षा प्रदान करने के लिए तैयार हैं कि सार्वजनिक शांति भंग न हो।
मूलतः, तमिलनाडु की DMK सरकार ने तौहीद जमात की इस धारणा का पालन किया कि इस्लाम का पालन केवल उसके शुद्धतम रूप में किया जाना चाहिए और दरगाह की परंपराएं, ढोल और संगीत के साथ मुहर्रम मनाना, मूलतः इस्लाम पर “बुरा प्रभाव” है। यही नहीं तमिलनाडु सरकार ने दरगाह की परंपरा को “आपत्तिजनक आयोजन” करार दिया। इस पर मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि तमिलनाडु सरकार ने 'झुकाव' दिखाया है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसने कट्टरपंथी तत्वों के आगे घुटने टेक दिए हैं। न्यायालय ने कहा, "जिला प्रशासन ने झुकना स्वीकार कर लिया है। इसी कारण पिछले चौदह वर्षों से कुथिराई पंचा और संथानाकुडु जैसी परंपराओं का पालन नहीं किया जा सका है। मुहर्रम के जुलुस में ढोल-संगीत सब बजेगा, जिसे नहीं पसंद वो घर बैठे। "
कट्टरपंथियों के दबाव में DMK सरकार ने हिन्दू जुलुस भी रोका था :-
दरअसल मद्रास उच्च न्यायालय में पेरमंबलूर जिले के कड़तुर गांव का मामला पहुंचा था। इस गांव में 100 साल पहले से ही हिंदू रथ यात्रा निकालते थे, इस गांव में चार प्रमुख मंदिर थे और उन मंदिरों की रथ यात्रा सैकड़ों सालों से निकलती थी। दक्षिण भारत के मंदिरों में हर मंदिर का प्रमुख मंदिर का रथ यात्रा निकलता है। 2011 तक ये रथ यात्रा निर्विघ्न रुप से निकलती रही, लेकिन 2012 में कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी तमिलनाडु ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया, उन्होंने दो बार रथ यात्रा पर हमले किए।
इसके बाद यह मामला सत्र न्यायालय में गया। मुस्लिम पक्ष यानी जमात का यह कहना था कि चूंकि गांव में मुस्लिम आबादी अधिक है और इस्लामिक मान्यता में मूर्ति पूजा शिर्क यानी पाप है और क्योंकि मुसलमानों के सामने से देवी-देवताओं के रथ गुजरते हैं तो उनकी मूर्तियों को देखकर मुस्लिम को शिर्क यानी पाप लगता है। इसलिए ऐसी रथ यात्रा और अन्य हिंदू उत्सव पर मुस्लिम इलाके में रोक लगाई जाए। गौर करने वाली बात ये भी है कि, शायद इसीलिए अक्सर हिन्दुओं के जुलूसों पर हमले होते हैं, क्योंकि कट्टरपंथी उसे पाप समझते हैं और राजनेता बड़े आसानी से कह देते हैं कि भड़काऊ नारों की वजह से हिंसा हुई। लेकिन सबसे अधिक हैरानी की बात तो ये थी कि, पेरंबलूर सेशन कोर्ट ने जमात की इस दलील पर यकीन करते हुए भारत के संविधान और भारत की धर्मनिरपेक्षता की धज्जियाँ उड़ाते हुए 100 साल से चली आ रही रथ यात्रा रोक दी।
उसके बाद हिंदू पक्ष मद्रास उच्च न्यायालय गया। हाई कोर्ट में जस्टिस कृपाकरन और जस्टिस वेलमुरूगन की पीठ ने विरोधी पक्ष यानी जमात से पूछा माना कि समूह सांप्रदायिक हो सकते हैं, व्यक्ति सांप्रदायिक हो सकता है, परंतु क्या सड़कें भी सांप्रदायिक हो सकती हैं ? क्या भारत में संविधान का राज नहीं है? मद्रास उच्च न्यायालय की पीठ ने जमात को याद दिलाया कि यदि उसका यह तर्क मान लिया जाए, तो फिर भारत के हिंदू बहुल इलाकों में ना तो मुस्लिम आयोजन हो सकता है, ना किसी जुलूस की अनुमति दी, ना ही कोई मस्जिद बन सकती है या मस्जिदों से लाउडस्पीकर पर अजान हो सकता है। इसी के साथ मद्रास उच्च न्यायालय ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी कही। हाई कोर्ट ने कहा था कि यह अत्यंत दुख का विषय है कि हिंदुओं को भारत में बहुसंख्यक होते हुए भी अपनी पूजा जैसे मूल अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय की शरण में जाना पड़ रहा है। और मद्रास उच्च न्यायालय ने हिंदू पक्ष को गांव में बदस्तूर रथयात्रा निकालने का आदेश दिया और तमिलनाडु सरकार से कहा कि वह पूरे तमिलनाडु में इस बात की निगरानी करें कि हिंदुओं की पूजा रथ यात्रा पर किसी तरह का विघ्न न आने पाए।
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