नई दिल्ली: प्राचीन भारतीय संस्कृति और परंपराएं हमेशा से ही अपने वैज्ञानिक और दार्शनिक आधार के लिए जानी जाती रही हैं। जब पश्चिमी दुनिया अभी ग्रहों की खोज और खगोलीय ज्ञान की शुरुआत कर रही थी, तब भारत ने अपनी प्राचीन परंपराओं, ग्रंथों और ऋषि-मुनियों के ज्ञान के माध्यम से ब्रह्मांड के रहस्यों को उजागर कर लिया था। हजारों साल पहले, भारत के खगोलविदों और ऋषियों ने यह जान लिया था कि बृहस्पति ग्रह को सूर्य की परिक्रमा करने में लगभग 12 वर्ष लगते हैं। इसी वैज्ञानिक समझ के आधार पर कुंभ मेले की परंपरा शुरू हुई, जो हर 12 वर्षों में आयोजित होता है और जिसमें असंख्य श्रद्धालु भाग लेते हैं। यह मेला केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारतीय खगोल विज्ञान, आस्था और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।
प्राचीन भारतीय खगोलविदों ने बृहस्पति ग्रह की गति का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि इसे सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में 12 वर्ष लगते हैं। इसी खगोलीय घटना के आधार पर कुंभ मेले का आयोजन होता है। यह ज्ञान उस समय विकसित हुआ, जब पश्चिमी दुनिया ने ग्रहों की खोज शुरू भी नहीं की थी। कुंभ मेले की परंपरा का सबसे प्राचीन उल्लेख मेगास्थनीज, फाहियान और ह्वेनसांग जैसे विदेशी यात्रियों के लेखों में मिलता है।मेगास्थनीज, जो ईसा पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी में भारत आए थे, ने अपने विवरणों में कुंभ के आयोजन और भारतीय समाज की सांस्कृतिक एकता का उल्लेख किया है। इसी प्रकार, चीनी यात्री फाहियान (399-411 ई.) और ह्वेनसांग (7वीं शताब्दी) ने भी कुंभ मेले को भारतीय परंपरा का अद्भुत उदाहरण माना। इन यात्रियों ने यह भी बताया कि किस प्रकार विभिन्न प्रांतों से लोग कुंभ में शामिल होने के लिए एकत्रित होते थे।
मालवीय जी और अंग्रेज वायसराय के बीच संवाद:-
उस समय भारत आज़ाद नहीं हुआ था, अब अंग्रेज़ भी महाकुंभ को देखकर चौंक गए थे। 1942 का कुंभ मेला उस समय चर्चा में आया, जब भारत के वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो प्रयागराज पहुंचे। उनके साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता पंडित मदन मोहन मालवीय भी थे। लाखों लोगों की भीड़ और ठंड के मौसम में संगम पर डुबकी लगाते श्रद्धालुओं को देखकर लिनलिथगो हैरान रह गए। उन्होंने मालवीय जी से पूछा कि इतने बड़े आयोजन के लिए न्योता भेजने में कितना धन और श्रम लगता होगा।
मालवीय जी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “मात्र दो पैसे।” वायसराय को यह सुनकर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने पूछा कि यह कैसे संभव है। मालवीय जी ने अपनी जेब से एक पंचांग निकाला और समझाया कि यह पंचांग केवल दो पैसे में हर व्यक्ति को यह जानकारी देता है कि कुंभ कब और कहां आयोजित होगा और भारत के कोने कोने से श्रद्धालु उस तय समय पर कुंभ के स्थान पर पहुँच जाते हैं। यह बात वायसराय के लिए अचंभे से कम नहीं थी, क्योंकि, पश्चिम अब भी सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण जैसी घटनाओं के लिए NASA के सेटेलाइट पर निर्भर है, जबकि भारतीय पंचांग अगले 50 वर्षों के ग्रहण के बारे में जानकारी दे सकता है। जिसकी कीमत सेटेलाइट के सामने नगण्य है।
कुंभ का ऐतिहासिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य:-
1882 के महाकुंभ मेले पर मात्र 20,288 रुपये खर्च हुए थे। 1894 में, जब भारत की जनसंख्या 23 करोड़ थी, लगभग 10 लाख श्रद्धालुओं ने कुंभ में हिस्सा लिया। उस समय आयोजन पर 69,427 रुपये खर्च हुए थे। आज, 2025 के महाकुंभ का बजट 7500 करोड़ रुपये रखा गया है। इन आँकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि समय के साथ कुंभ का स्वरूप और इसका आर्थिक प्रभाव कितना बढ़ा है।
मार्क ट्वैन पर भी चला कुंभ का जादू:-
1894-95 में प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वैन भारत आए और प्रयागराज के कुंभ मेले में शामिल हुए। उन्होंने अपने अनुभव अपनी पुस्तक ‘फॉलोइंग द इक्वेटर’ में साझा किए। कुंभ की भीड़ और श्रद्धालुओं की आस्था से अभिभूत होकर उन्होंने लिखा, “यह अद्भुत है कि किस प्रकार का विश्वास इन लोगों को महीनों की कठिन यात्रा करने के लिए प्रेरित करता है।”
उन्होंने यह भी लिखा, “ये तीर्थयात्री केवल अपनी प्यास बुझाने के लिए नहीं, बल्कि अपनी आत्मा को शुद्ध करने के लिए गंगा का जल पीते हैं।” मार्क ट्वैन ने भारत को “सपनों और रोमांच का देश” बताया, जहां अपार धनी और गरीब दोनों साथ रहते हैं।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में कुंभ मेले को “समग्र भारत” का प्रतीक कहा है। उन्होंने लिखा, “यह विश्वास अद्भुत है, जो हजारों वर्षों से लोगों को एकत्रित करता आ रहा है।” 1954 के महाकुंभ में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री नेहरू जैसे नेता भी उपस्थित हुए थे। कुंभ केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि यह भारत की विविधता में एकता का अद्भुत उदाहरण है। नागा साधुओं का जुलूस, संतों के प्रवचन, और गंगा स्नान की परंपरा इस मेले को अनोखा बनाते हैं। मार्क टुली, जो भारत में कई दशकों तक पत्रकार रहे, ने लिखा कि कुंभ का अनुभव न केवल अद्भुत है, बल्कि यह भारतीय सहिष्णुता और विविधता का प्रतीक भी है।
कबीर की दृष्टि में कुंभ:-
संत कबीर दास ने कुंभ को मानव शरीर का रूपक माना। वे लिखते हैं:
“जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी,
फूटा कुम्भ जल जलहीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।”
कबीर के अनुसार, यह जीवन और मृत्यु का प्रतीक है। जैसे घड़ा टूटने पर उसमें समाहित जल नदी में विलीन हो जाता है, वैसे ही आत्मा परमात्मा में समाहित हो जाती है।
कुंभ मेला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारतीय समाज की सांस्कृतिक, खगोलीय और सामाजिक गहराई का प्रतीक है। यह वह स्थान है, जहां आस्था और विज्ञान का संगम देखने को मिलता है। कुंभ मेला यह संदेश देता है कि भले ही जीवन में कष्ट हों, लेकिन विश्वास और आस्था से सभी बाधाओं को पार किया जा सकता है। यह मेला भारत की आत्मा को दर्शाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है, जो सदियों से विश्व के कोने-कोने के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है।