गुंटूर: आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में अंधविश्वास के चलते 8 साल की दलित बच्ची भव्यश्री की जान चली गई। भव्यश्री, जो ब्रेन ट्यूमर से जूझ रही थी, का सही इलाज कराने के बजाय उसे 40 दिनों तक चर्च में रखा गया, जहाँ उसके इलाज के नाम पर मज़हबी क्रियाएँ करवाई गईं। बच्ची के माता-पिता को चर्च के पादरी ने यह भरोसा दिलाया था कि प्रार्थना से उनकी बेटी ठीक हो जाएगी। लेकिन इस झूठे आश्वासन ने बच्ची की जान ले ली।
Who killed this minor girl?
— Subhi Vishwakarma (@subhi_karma) December 11, 2024
Bhavyashree (8) had been dealing with headaches and vomiting for some time, which turned out to be symptoms of a tumor that required surgery. Due to a financial crisis, her family chose faith healing over medical treatment and took her to a church… pic.twitter.com/NZ0gnLlCKK
घटना नेल्लोर के कालुवई इलाके की है। दलित बस्ती में रहने वाली भव्यश्री को कुछ समय से सिर दर्द और लगातार उल्टियों की शिकायत थी। डॉक्टरों ने जांच के बाद बताया कि उसे ब्रेन ट्यूमर है, और उसका इलाज केवल सर्जरी से संभव है। इलाज की भारी-भरकम लागत के कारण भव्यश्री के गरीब माता-पिता, लक्ष्मैया और लक्ष्मी, असमंजस में थे। तभी कुछ रिश्तेदारों ने उन्हें सलाह दी कि अस्पताल जाने के बजाय चर्च में झाड़-फूंक कराएं।
चर्च के पादरी ने परिवार को झूठा दिलासा दिया कि ईश्वर की प्रार्थना और धार्मिक अनुष्ठानों से बच्ची का ट्यूमर ठीक हो जाएगा। इस झाँसे में आकर माता-पिता ने अपनी बच्ची को चर्च में रखा। वहाँ भव्यश्री से ईसाई धर्म के तमाम क्रियाकलाप करवाए गए। 40 दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा, लेकिन बच्ची की हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती चली गई। सोमवार, 9 दिसंबर 2024 को, भव्यश्री ने दम तोड़ दिया।
यह घटना केवल भव्यश्री के परिवार की त्रासदी नहीं है, बल्कि समाज के उस अंधेरे पहलू को उजागर करती है, जहाँ अंधविश्वास और धार्मिक झाँसे आज भी लोगों की जिंदगी पर हावी हैं। देशभर में अंधविश्वास उन्मूलन समितियाँ सक्रिय हैं, जो कथित तौर पर झाड़-फूंक करने वाले कथावाचकों और तांत्रिकों के खिलाफ अभियान चलाती हैं। लेकिन इस घटना पर न तो कोई नेता बोला और न ही अंधविश्वास विरोधी समूहों ने आवाज उठाई।
सवाल उठता है कि क्या यह चुप्पी वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा है? क्या इसलिए किसी ने चर्च की भूमिका पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं की? भव्यश्री की मौत उन हजारों मासूम जिंदगियों का प्रतीक है, जो झूठे धार्मिक विश्वासों और समाज की चुप्पी का शिकार बनती हैं। यह घटना बताती है कि अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई में न केवल कथावाचकों को बल्कि हर उस संस्था और व्यक्ति को जवाबदेह बनाना होगा, जो लोगों को झूठे आश्वासनों के माध्यम से गुमराह करते हैं।
भव्यश्री की जान बचाई जा सकती थी, अगर समय पर सही इलाज हुआ होता। लेकिन यह चुप्पी, जो राजनीतिक और सामाजिक मजबूरियों के कारण छाई हुई है, ऐसे मामलों को बढ़ावा देती है। क्या हम यह मान लें कि अंधविश्वास के खिलाफ अभियान केवल उन्हीं मामलों में चलता है, जो राजनीति या समाज के लिए सुविधाजनक हों? इस घटना ने यह साबित कर दिया कि यदि हम सचमुच अंधविश्वास का उन्मूलन चाहते हैं, तो हमें इस चुप्पी के षड्यंत्र को तोड़ना होगा।