नई दिल्ली: गणेशोत्सव पर मुस्लिम हमलों का इतिहास बेहद पुराना और गंभीर मुद्दा है, जो पहली बार 1895 में महाराष्ट्र के धुलिया में हुआ था। यह घटना भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई, जहां धार्मिक असहिष्णुता और सांप्रदायिक हिंसा का एक सिलसिला शुरू हुआ, जो आज तक चला आ रहा है। इस लेख में हम धुलिया से लेकर हाल के वर्षों तक गणेशोत्सव पर हुए हमलों की घटनाओं का विश्लेषण करेंगे, साथ ही यह सवाल उठाएंगे कि मुस्लिम समुदाय में अन्य धर्मों के प्रति इतनी नफरत क्यों है? और क्या यह सांप्रदायिक संघर्ष केवल एक ऐतिहासिक घटना है या आज भी इसके पीछे वही पैटर्न और मानसिकता काम कर रही है?
1895 धुलिया हमला:
साल 1895 में महाराष्ट्र के धुलिया में गणेश विसर्जन के दौरान इस्लामवादी भीड़ ने हिंदुओं पर हमला किया। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में हिंदुओं को संगठित करने के लिए सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत की थी, जिसका उद्देश्य धार्मिक और सामाजिक एकता को बढ़ावा देना था। तिलक का उद्देश्य स्पष्ट था – हिंदू समाज को अंग्रेज़ों के खिलाफ एकजुट करना, और जातिवाद की खाई पाटना, लेकिन यह प्रयास मुस्लिम समुदाय के कुछ कट्टरपंथी गुटों को नागवार गुजरा।
धुलिया में गणेश प्रतिमा विसर्जन के दौरान जब जुलूस शाही जामा मस्जिद के पास से गुजर रहा था, तब मुस्लिम भीड़ ने हिंसा शुरू कर दी। उन्होंने गणेश भक्तों पर हमला किया और पथराव किया। इस घटना के बाद ब्रिटिश पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई, जिसमें कई लोग मारे गए। इस घटना ने धुलिया में सांप्रदायिक तनाव को बढ़ा दिया और इसके बाद की घटनाओं ने हिंदू-मुस्लिम संबंधों में एक बड़ी खाई पैदा कर दी। इस हमले के बाद धुलिया का गणेश मंदिर “खूनी गणपति मंदिर” और मस्जिद “खूनी मस्जिद” के नाम से प्रसिद्ध हो गई। यह घटना इस्लामवादी कट्टरपंथी गुटों द्वारा हिंदू धार्मिक आयोजनों पर हमले की पहली ज्ञात घटना मानी जाती है, जो धार्मिक असहिष्णुता का प्रतीक बनी।
1893 मुंबई दंगे:
धुलिया से पहले, 1893 में मुंबई में भी सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। यह घटना तब हुई जब हनुमान मंदिर में संगीत बजाया जा रहा था, और मुस्लिम समुदाय ने इसे नमाज के दौरान "विघ्न" का कारण बताया। इसके बाद हिंसा भड़क गई, जिसमें कई लोगों की जान गई और सांप्रदायिक तनाव चरम पर पहुंच गया। बई की इस घटना ने तिलक को सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत करने के लिए प्रेरित किया, ताकि हिंदू समाज को धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से संगठित किया जा सके। तिलक का मानना था कि एक मजबूत और एकजुट हिंदू समाज ही सांप्रदायिक हिंसा का सामना कर सकता है, और गणेशोत्सव इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक आदर्श माध्यम साबित हुआ।
आज क्या बदल गया है?
हालांकि 1895 की घटना इतिहास में दर्ज हो चुकी है, लेकिन आज भी गणेशोत्सव पर हमले होते रहते हैं। वर्ष 2024 में भी गुजरात, उत्तर प्रदेश, और कर्नाटक जैसे राज्यों में मुस्लिम समूहों द्वारा गणेश उत्सव पर हमले किए गए। गुजरात के सूरत में, रुबाइना पठान और लाइमा शेख नाम की दो मुस्लिम महिलाओं को गिरफ्तार किया गया, जिन्होंने अपने बच्चों को गणेश मूर्तियों पर हमला करने के लिए उकसाया। सूरत के लाल गेट क्षेत्र में गणेशोत्सव पंडाल पर मुस्लिम किशोरों द्वारा पत्थर फेंके गए।
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— Savitri Mumukshu - सावित्री मुमुक्षु (@MumukshuSavitri) September 1, 2022
On Aug. 11, 1893, armed with Lathis, Muslims ran out of Jama Masjid in Bombay attacking Hindus & destroying the Hanuman Mandir, whose music had "disturbed" Namaz. Riots went on for 3 days with looting, arson & killing. Many Hindus died, their temples & shops were destroyed. pic.twitter.com/8jblM6f29M
कर्नाटक के नागामंगला में, एक मुस्लिम भीड़ ने गणपति विसर्जन जुलूस पर पत्थरबाजी की, क्योंकि हिंदू उत्सव के दौरान दरगाह के सामने कुछ मिनटों के लिए नाच-गाना हुआ। इसी तरह की घटना उत्तर प्रदेश के लखनऊ और महोबा जिले में हुई, जहां भगवान गणेश की मूर्ति पर मुस्लिम समूहों ने पत्थर फेंके। इन घटनाओं का पैटर्न बिल्कुल वही है जो 1895 में देखा गया था। मस्जिद के पास से जुलूस गुजरने पर विरोध, पथराव, और सांप्रदायिक तनाव पैदा करना – ये घटनाएं आज भी उसी मानसिकता को उजागर करती हैं, जो 130 साल पहले धुलिया में थी।
आज मुस्लिम समुदाय अक्सर भाजपा और RSS को सांप्रदायिक तनाव का कारण बताता है, लेकिन यह तथ्य अनदेखा नहीं किया जा सकता कि 1895 में न तो भाजपा थी और न ही RSS का कोई अस्तित्व। फिर भी, गणेशोत्सव पर हमले हुए। इस्लामिक कट्टरपंथी गुटों द्वारा यह दावा करना कि दंगे भाजपा या RSS के कारण होते हैं, इतिहास के तथ्यों को नकारने जैसा है। जब 1895 में गणेशोत्सव पर हमला हुआ, तब भी मस्जिद के आसपास से जुलूस निकालने का वही बहाना था कि "नमाज में विघ्न" पड़ रहा है। यह सोचने पर मजबूर करता है कि जब अन्य समुदाय मस्जिदों पर लाउडस्पीकर से दिन में 5 बार होने वाली अज़ान को विघ्न नहीं मानते और मस्जिदों पर हमले नहीं करते, तो क्या मुस्लिम समुदाय इसी सहिष्णुता का परिचय नहीं दे सकता? मुहर्रम और ईद के जुलूसों पर कितने पथराव अन्य समुदाय के लोगों ने किए हैं ? इन घटनाओं पर पर्दा डालते हुए कुछ राजनेता वोट बैंक की लालच में ये कह देते हैं कि मुस्लिम इलाकों से जुलुस निकले ही क्यों ? पर उनसे भी एक सवाल पुछा जाना चाहिए कि मुस्लिम आबादी बढ़ रही है, जाहिर है मस्जिदें भी बढ़ रहीं हैं, तो कितने इलाकों से जुलुस रोका जाएगा ? एक दिन ऐसा आएगा कि कोई रास्ता ही नहीं बचेगा। फिर क्या घर में जुलुस निकाला जाएगा ? इस समस्या के निराकरण पर चर्चा क्यों नहीं होती ?
क्योंकि, धार्मिक असहिष्णुता का यह संघर्ष केवल भारत तक सीमित नहीं है। अगर हम वैश्विक परिदृश्य देखें, तो हमें पता चलता है कि मुस्लिम समुदाय का अन्य धर्मों के साथ संघर्ष लगभग हर जगह देखा जा सकता है। म्यांमार में रोहिंग्या मुस्लिमों का बौद्धों के साथ संघर्ष है, जिन्हे बेहद शांतिप्रिय माना जाता है। इजराइल में, यहूदी-मुस्लिम संघर्ष जगजाहिर है। ईसाई देशों में भी ईसाई-मुस्लिम संघर्ष देखने को मिलता है। यहां तक कि पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे मुस्लिम बहुल देशों में भी अहमदिया समुदाय को मुस्लिम नहीं माना जाता, और उन पर हमले होते हैं। उनकी मस्जिदें तोड़ी जाती हैं और उनकी कब्रें भी नहीं छोड़ी जातीं।
यहां सवाल यह उठता है कि क्या मुस्लिम समुदाय किसी दूसरे धर्म या समुदाय के साथ शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रह सकता है? इतिहास से लेकर आज तक की घटनाएं बताती हैं कि धार्मिक असहिष्णुता और सांप्रदायिक संघर्ष की जड़ें बहुत गहरी हैं, और इनका समाधान केवल सहिष्णुता और आपसी समझ से ही संभव है।
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